________________ हो जायेगा। विशेषार्थ : तत शब्द से परबुद्धि आदि कहे गए हैं। अनुमानादि को पर बुद्धि आदि का विषय करने वाला मानने पर एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, यह वचन घटित नहीं होगा, यह सूत्र का समुच्चयार्थ है। अब आचार्य इसी विषय में उदाहरण देते हैं - तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वमप्रमाणस्या व्यवस्थापकत्वात्॥ 59 // सूत्रान्वय : तर्कस्य = तर्क को, एव = ही, व्याप्तिगोचरत्वे = व्याप्ति को विषय करने वाला, प्रमाणान्तरत्वम् = एक भिन्नप्रमाणापना, अप्रमाणस्य = अप्रमाणज्ञान की, अव्यवस्थापकत्वात् = व्यवस्था नहीं करने से। सूत्रार्थ : तर्क को व्याप्ति का विषय करने वाला मानने पर बौद्धादि को उसे एक भिन्न प्रमाण मानना पड़ता है, क्योंकि अप्रमाणज्ञान पदार्थ की व्यवस्था नहीं कर सकता है। __ संस्कृतार्थ : किञ्चानुमानादेः परबुद्धयादिनिश्चायकत्वाभ्युपगमेऽपि चार्वाकाणाम् प्रत्यक्षैकप्रमाणवादो हीयते / यथा सौगतादीनां तर्क प्रमाणेन व्याप्तिनिश्चयाभ्युपगमे स्वाभिमत द्वित्रिचतुरादिसंख्याव्याघातो भवति। किञ्च तर्कस्याप्रमाणत्वाभ्युपमगे व्याप्तिप्रतिपत्तिः खपुष्पवत् भवेत् / अप्रमाणस्य समारोपाव्यवच्छेदेन स्वविषय निश्चायकत्वाभावात्। टीकार्थ : कोई और कहता है कि अनुमानादि के पर बुद्धयादि का निश्चायकपना स्वीकार करने पर भी चार्वाकादि को प्रत्यक्ष एक प्रमाणवाद को त्याग करने का प्रसंग आता है। जैसे - सौगतादि को तर्क प्रमाण के द्वारा व्याप्ति का निश्चय स्वीकार करने पर उनके द्वारा स्वीकृत दो, तीन, चार आदि संख्या का व्याघात होता है। यदि कोई कहे कि - तर्क को मानकर भी हम उसे प्रमाण नहीं मानेंगे, अप्रमाण मान लेवेंगे, व्याप्ति का ज्ञान आकाश पुष्प के समान हो जावेगा। अप्रमाण के समारोप आदि का निराकरण न करने से अपने विषय के निश्चायकपने का अभाव होने से। A .