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________________ संस्कृतार्थ : अत्र शास्त्रे केवलं प्रमाण विवेचनं विहितम् / एतद् भिन्नं नयादि तत्त्वविवेचनम् ग्रन्थान्तराद्विलोकनीयम्। टीकार्थ : इस ग्रन्थ में केवल प्रमाण विवेचन को कहा गया है, इससे भिन्न नयादि तत्त्वों का विवेचन अन्य ग्रन्थों से जानना चाहिए या देखना चाहिए। 292. न्याय का क्या अर्थ है ? विभिन्न प्रमाणों द्वारा वस्तुतत्त्व की परीक्षा करना। 293. न्याय दर्शन का उद्देश्य क्या है ? प्रमाणों के द्वारा प्रमेय (जानने योग्य) वस्तु का विचार करना और प्रमाणों का विस्तृत विवेचन करना न्याय दर्शन का प्रधान उद्देश्य है। 294. न्याय दर्शन में किन सत् पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ? प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान इन सोलह सत् पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतः इनका परिज्ञान करना आवश्यक है। परीक्षामुखमादर्शी, हेयोपादेयतत्त्वयोः। संविदे मादृशो बालः, परीक्षादक्षवद् व्यधाम॥ अर्थ : परीक्षामुखम् = परीक्षामुख को, आदर्शम् = दर्पण, हेयोपादेय = हेय और उपादेय, तत्त्वयोः = दोनों तत्त्वों के, संविदे = ज्ञान के लिए, मादृशः = मुझ सदृश, बालः = बालक ने (अज्ञानी ने) परीक्षादक्षवत् = परीक्षा में कुशल के समान, व्यधाम् = रचा। श्लोकार्थ : छोड़ने योग्य और ग्रहण करने योग्य तत्त्व के ज्ञान के लिए दर्पण के समान इस परीक्षा मुख ग्रन्थ को मुझ सदृश बालक ने परीक्षा में निपुण पुरुष के समान रचा। समाप्तोऽयं ग्रन्थः 178
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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