SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्यते, यदनुमानादिप्रमाणं बिना प्रत्यक्षमात्रेण परलोकादिनिषेधस्य परबुद्धयादे च सिद्धि!भवेत्, यतस्तौ प्रत्यक्षविषयौ न स्तः / अथश्चायं नियमो यत् यद्यत् न विषयीकरोति तत्तस्य विधिं, निषेधम्वा कर्तुं नो शक्नुयात्। टीकार्थ : चार्वाक का प्रत्यक्ष मात्र प्रमाण को स्वीकार करना संख्याभास है जो अनुमानादि प्रमाण बिना प्रत्यक्ष मात्र से परलोकादि का निषेध और पर की बुद्धि आदि की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वे दोनों प्रत्यक्ष के विषय नहीं हैं और ऐसा नियम है कि जो जिसको विषय नहीं करता, वह उसका निषेध और विधान में समर्थ नहीं है। अब चार्वाक के दृष्टान्त द्वारा बौद्धादि के मत में भी संख्याभासपना है यह दिखलाते हैं - सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोप मानार्थापत्याभावैरेकैकाधिकैः व्याप्तिवत्॥ 57 // सूत्रान्वय : सौगत = बुद्ध, सांख्य = सांख्य, यौग = यौग, प्रभाकर = प्रभाकर, जैमिनीयानाम् = जैमिनीय के, प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्ति अभावैः = प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव द्वारा, एक = एक, अधिकैः = अधिक के द्वारा, व्याप्तिवत् = व्याप्ति के समान। सूत्रार्थ : जिस प्रकार बौद्ध, सांख्य, योग, प्रभाकर और जैमिनीयों के प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन एक-एक अधिक प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति विषय नहीं की जाती है। ___ संस्कृतार्थ : यथा सौगतसांख्ययोगप्रभाकर जैमिनीयाङ्गीकृतैरेकैकाधिकैः प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्याभावैः व्याप्तेरनिर्णयोऽतस्तानि संख्याभासस्तथा चार्वाकोऽपि प्रत्यक्षमात्रेण परलोकादिनिषेधस्य परबुद्धयादेश्च सिद्धिं कर्तुं नो. शक्नुयात् / अतस्तत्स्वीकृतम् प्रत्यक्षमेवैकम्प्रमाणं संख्याभासः / टीकार्थ : जैसे - बौद्ध, सांख्य, यौग, प्रभाकर, जैमिनीय इनके द्वारा ' स्वीकृत एक-एक अधिक प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव के द्वारा व्याप्ति का निर्णय नहीं होता। इसलिए उनकी संख्या संख्याभास है इसी प्रकार चार्वाक भी प्रत्यक्ष मात्र से ही परलोकादि का निषेध तथा पर की 166
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy