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________________ टीकार्थ : आगम प्रमाण का अंग है और प्रमाण को अविसंवादि होना चाहिए, इसलिए विवादग्रस्त होने से पूर्वोक्त वचन आगमाभास है। 288. आगमरूप से प्रमाण किसे नहीं माना जा सकता है। जिन पुरुषों के वचनों में विसंवाद, विवाद, पूर्वापर विरोध या विपरीत ... अर्थप्रतिपादकपन पाया जाता है, वे आगम स्वरूप नहीं हैं। अब प्रमाण के संख्याभास का स्वरूप कहते हैं - प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम्॥ 55 // सूत्रान्वय : प्रत्यक्षम् = प्रत्यक्ष को, एव = ही, एक = एक को, प्रमाणम् = प्रमाण, इत्यादि = इस रूप से, संख्याभासम् = संख्याभास है। सूत्रार्थ : प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, इत्यादि रूप से सर्व संख्याभास है। विशेषार्थ : प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है, यह पहले कहा गया है, उससे विपरीत प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है अथवा प्रत्यक्ष और अनुमान ये ही दो प्रमाण हैं, अन्य नहीं है, ऐसी अवधारणा करना भी संख्याभास है। नोट : सूत्र का संस्कृतार्थ सूत्रार्थ ही है। अब प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, यह कहना कैसे संख्याभास है, कहते हैं - लौकायतिकस्य प्रत्यक्षत: परलोकादिनिषेधस्य परबुद्धया देश्चासिद्धेरतद्विषयत्वात्॥ 56 // सूत्रान्वय : लौकायतिकस्य = चार्वाक के, प्रत्यक्षतः = प्रत्यक्ष से, परलोकादि = परलोक आदि का, निषेधस्य = निषेध के, परबुद्धयादे = परबुद्धि आदि की, असिद्धेः = सिद्धि न होने से, च = और, अतद्विषयत्वात् = उसके विषय न होने से। सूत्रार्थ : चार्वाक का प्रत्यक्ष को प्रमाण मानना इसलिए संख्याभास है कि प्रत्यक्ष से परलोक आदि का निषेध और पर की बुद्धि आदि की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि वे उसके विषय नहीं है। संस्कृतार्थ : चार्वाकस्य प्रत्यक्षमात्रप्रमाणस्य स्वीकरणमतः संख्याभासो 165
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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