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ऊर्ध्वता सामान्य एवं विशेष के पर्याय और व्यतिरेक भेदों का भी उदाहरण सहित विवेचन किया गया है।
पंचम समुद्देश में 3 सूत्र हैं। इसमें प्रमाण के फल का विवेचन किया गया है। अज्ञाननिवृत्ति को प्रमाण का साक्षात् फल तथा हान, उपादान और उपेक्षा को परम्परा फल बताकर उसे प्रमाण से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न सिद्ध किया है।
षष्ठ समुद्देश में 74 सूत्र हैं। इसमें प्रमाणाभासों का विशद विवेचन हुआ है। इसमें स्वरूपाभास, प्रत्यक्षाभास, परोक्षाभास , स्मरणाभास , प्रत्यभि ज्ञानाभास, तर्काभास, अनुमानाभास, पक्षाभास, हेत्वाभास, हेत्वाभास के असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अकिंचित्कर भेद उनके उदाहरण, दृष्टान्ताभास, दृष्टान्ताभास के भेद , बालप्रयोगाभास, आगमाभास, संख्याभास, विषयाभास, फलाभास, को दिग्दर्शित करते हुए वादी-प्रतिवादी का जय-पराजय व्यवस्था का भी प्रतिपादन किया गया है।
इस-ग्रन्थ पर लघु अनंतवीर्य द्वारा प्रमेयरत्नमाला, प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा प्रमेयकमलमार्तण्ड, भट्टारक चारुकीर्ति द्वारा प्रमेयरत्नालंकार, शान्तिवर्णी द्वारा प्रमेयकण्ठिका आदि अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं, जो सामान्य पाठक के लिये दुर्बोध हैं। श्रद्धेय क्षु. 105 विवेकानन्दसागरजी महाराज ने सम्पूर्ण ग्रन्थ के प्रत्येक सूत्र के शब्दार्थ, संस्कृतार्थ तथा हिन्दी अर्थ के साथ-साथ सूत्रगत प्रत्येक शब्द की सार्थकता सिद्ध करते हुए विशिष्ट भावों को सरल और सबोध भाषा में प्रश्नोत्तर द्वारा भी पाठकों को हृदयंगम कराने का स्तुत्य प्रयास किया। है। आप द्वारा अनुदित और व्याख्यायित प्रस्तुत कृति न्यायशास्त्र से अनभिज्ञ सामान्य पाठक को न्याय का सामान्य ज्ञान कराने के लिए अंधकार में पथभ्रष्ट मानव के लिए आलोक स्तम्भ के समान सिद्ध होगी। समग्रतः कृति लेखक के गहनज्ञान अद्वितीय सूझ-बूझ और अथक श्रम की परिचायिका है। यह श्रमसाध्य कृति शीघ्र ही अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोध संस्थान, बीना (सागर) मध्यप्रदेश द्वारा प्रकाशित होकर न्यायशास्त्र के जिज्ञासुओं की जटिल गुत्थियों को सुलझाने में सहायक होगी, इस भावना के साथ... मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) .
डॉ. सूरजमुखी जैन
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