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परीक्षामुखम्
प्रथमः परिच्छेदः ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा और उद्देश्य प्रमाणादर्थसंसिद्धि - स्तदाभासाद्विपर्ययः।
इति वक्ष्ये तयो-लक्ष्म, सिद्धमल्पं लघीयसः॥
सूत्रान्वय : अहं वक्ष्ये। किं तत् ? लक्ष्म। किं विशिष्टं लक्ष्म ? सिद्धम्। पुनरपिकथंभूतं ? अल्पं । कान् ? लघीयसः। कयोस्तल्लक्ष्म ? तयोः प्रमाण तदाभासयोः । कुतः ? यतः अर्थस्य संसिद्धि भवति। कस्मात् ? प्रमाणात् । विपर्ययः भवति । कस्मात् ? तदाभासात् इति शब्दः हेत्वर्थे इति हेतोः
श्लोकार्थ : प्रमाणत् = प्रमाण से (सम्यग्ज्ञान से), अर्थ = पदार्थ की (प्रयोजन), संसिद्धिः = सम्यक् सिद्धि, तदाभासात् = उस प्रमाणाभास से, विपर्ययः = विपरीत (सम्यक् सिद्धि नहीं होती), इति = इस प्रकार, वक्ष्ये = कहूँगा, तयोः = उन दोनों के (प्रमाण और प्रमाणाभास के) लक्ष्म = लक्षण को, सिद्धम् = पूर्वाचार्यों से प्रसिद्ध, अल्पं = संक्षिप्त (पूर्वापर विरोध से रहित), लघीयसः = अल्पबुद्धियों के हितार्थ।
अन्वयार्थ : मैं ग्रन्थकार (माणिक्यनन्दि आचार्य) कहूँगा। वह क्या है ? लक्षण । वह लक्षण कैसा है ? अल्प है - संक्षिप्त पूर्वापर विरोध से रहित है, शब्द की अपेक्षा अल्प है पर अर्थ की दृष्टि से महान् है। वह लक्षण किसके उद्देश्य से कहा जा रहा है ? मंदबुद्धि वाले शिष्यों के उद्देश्य से कहा जा रहा है। यहाँ किन दो के लक्षण को कहा जा रहा है ? अर्थात् प्रमाण और प्रमाणाभास के। क्योंकि प्रमाण से जानने योग्य पदार्थ की सिद्धि होती है और प्रमाणाभास से पदार्थ की सम्यक् सिद्धि नहीं होती। श्लोक में इति शब्द हेतु अर्थ में है।
श्लोकार्थ : प्रमाण से (सम्यग्ज्ञान से) अभीष्ट अर्थ की सम्यक्
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