________________ टीकार्थ : जैसे अग्नि ठण्डी होती है द्रव्य होने से इत्यादिक अनुमानों में कुछ भी न कर सकने से द्रव्यत्वादि हेतु अकिञ्चित्कर कहे जाते हैं, उसी प्रकार ऊपर के दृष्टान्त में भी जानना चाहिए। विशेष : अग्नि उष्ण नहीं है, यह बात प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित है फिर भी उसे सिद्ध करने के लिए जो द्रव्यत्व हेतु दिया गया, वह अग्नि को उष्णता रहित सिद्ध नहीं कर सकता है। अब अकिञ्चित्कर हेत्वाभास के प्रयोग की उपयोगिता कहते हैं - लक्षणे एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैवदुष्टत्वात्॥39॥ सूत्रान्वय : लक्षणे = लक्षण में, एव = ही, असौ =वह, दोषः = दोष, व्युत्पन्नप्रयोगस्य = व्युत्पन्न का प्रयोग के, पक्षदोषेण = पक्ष के दोष से, एव -ही, दुष्टत्वात् = दूषित होने से। सूत्रार्थ : लक्षण की अपेक्षा से ही यह दोष है क्योंकि व्युत्पन्न पुरुषों का प्रयोग पेक्ष के दोषों से ही पुष्ट हो जाता है। संस्कृतार्थ : अकिञ्चित्कर हेत्वाभासविचारः शास्त्रे एव जायते न तु वादे / यतो व्युत्पन्नप्रयोग: पक्षदोषणैव दूष्यते, तत्र हेतु दोषस्य प्राधान्यं नो विद्यते। टीकार्थ : अकिञ्चित्कर हेत्वाभास का विचार शास्त्रकाल में ही होता है, वाद काल में नहीं, क्योंकि व्युत्पन्न पुरुषों का प्रयोग पक्ष के दोषों से ही दूषित हो जाता है। विशेष : शिष्यों को शास्त्र के पठन-पाठनकाल में ही अकिञ्चित्कर हेत्वाभास को दोष रूप कहा गया है, शास्त्रार्थ करने के समय नहीं क्योंकि शास्त्रार्थ के समय विद्वान् लोगों का ही अधिकार होता है। अब अन्वय दृष्टान्ताभासों के भेद कहते हैं - दृष्टान्ताभासा अन्वयेऽसिद्धसाधनोभयाः॥ 40 // सूत्रान्वय : दृष्टान्ताभासा = दृष्टान्ताभास के, अन्वये = अन्वय में, असिद्ध = असिद्ध, साधन = साधन, उभयाः = दोनों। सूत्रार्थ : अन्वय दृष्टान्ताभास के तीन भेद हैं - साध्य विकल, साधन 156