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________________ टीकार्थ : शब्द श्रावण है, शब्द होने से। यहाँ पर यह हेतु सिद्ध, साध्य अकिञ्चित्करहेत्वाभास है। अब इस शब्दत्व हेतु के अकिञ्चित्करता कैसे हैं, उसे कहते हैं - किञ्चिदकरणात्॥ 37 // सूत्रान्वय : किञ्चित् = कुछ भी, अकरणात् = नहीं कर सकता है। सूत्रार्थ : कुछ भी नहीं करने से शब्दत्वहेतु अकिञ्चित्कर हेत्वाभास संस्कृतार्थ : अत्रानेनशब्दत्वेन हेतुना किञ्चिदपि नो साध्यते। यतः शब्दस्य श्रावणज्ञानेन ज्ञानं सिद्धमेव विद्यते। टीकार्थ : यहाँ पर यह शब्दत्वहेतु कुछ भी नहीं कर सकता है। क्योंकि शब्द का कर्ण इन्द्रिय से जाना जाना सिद्ध ही है। विशेष : शब्द का कान से सुना जाना तो पहले से सिद्ध ही है, फिर भी उसे सिद्ध करने के लिए जो शब्दत्व हेतु दिया गया है, वह व्यर्थ है क्योंकि उससे साध्य की कुछ भी सिद्धि नहीं होती है। (अतः अकिञ्चित्करहेत्वाभास है।) अब शब्दत्वहेतु के अकिञ्चित्करत्व की पुष्टि करते हैं - यथाऽनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वादित्यादौ किञ्चित्कर्तुमशक्यत्वात्॥38॥ सूत्रान्वय : यथा = जैसे, अनुष्णः = गर्म नहीं है, अग्निः = आग, द्रव्यत्वात् = द्रव्य होने से, इत्यादौ = इत्यादिक में, किञ्चित् = कुछ भी, कर्तुम् = करने के लिए, अशक्यत्वात् = शक्य न होने से। सूत्रार्थ : जिस प्रकार अग्नि ठण्डी होती है क्योंकि वह द्रव्य है इत्यादि अनुमानों में कुछ भी नहीं कर सकने से द्रव्यत्वादि हेतु अकिञ्चित्कर कहे जाते संस्कृतार्थ : यथाऽनुष्णोऽग्नि व्यत्वात् इत्यादिष्वनुमानेषु किञ्चित् कर्तुमशक्यत्वात् द्रव्यत्वादयो हेत्वोऽकिञ्चित्कराः प्रोच्यन्ते तथैवोपर्युक्त दृष्टान्ते शब्दहेतुरप्यकिञ्चित्करो विज्ञेयः / 155
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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