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________________ टीकार्थ : अज्ञानी पुरुष से कहना कि यहाँ अग्नि है, धूम होने से, इस प्रकार का कथन उनके लिए असिद्धहेत्वाभास है। . अब इस हेतु की भी असिद्धता कैसे है, ऐसी शंका होने पर कहते हैं - तस्य वाष्पादिभावेन भूतसंघाते सन्देहात्॥26॥ सूत्रान्वय : तस्य = उसके, वाष्पादि भावेन = वाष्प (भाप) आदि के रूप से, भूतसंघाते = भूतसंघात में, संदेहात् = संदेह होने से। सूत्रार्थ : क्योंकि उसे भूतसंघात में भाप आदि के रूप से संदेह हो सकता है। नोट : भूतसंघात -चूल्हे से उतारी हुई बटलोई, क्योंकि उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु चारों रहते हैं और भाप भी निकलती रहती है। संस्कृतार्थ : मुग्धबुद्धिं प्रति धूमहेतुरतः स्वरूपासिद्धो हेत्वाभासो विद्यते, यतस्तस्य भूतसंघाते वाष्पादिदर्शनात् संदेह उत्पद्यते / यदत्र बह्निः वर्तते, वर्तेत वा। टीकार्थ : अज्ञानी मूर्ख के प्रति धूम हेतु इसलिए सन्दिग्धासिद्ध हेत्वाभास है, जिससे उसके भूतसंघात में वाष्पादि देखने से संदेह हो जाता है कि यहाँ भी अग्नि है अथवा होगी। अब असिद्धहेत्वाभास का और भी दृष्टान्त कहते हैं - सांख्यम्प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात्॥27॥ सूत्रान्वय : सांख्यम्प्रति = सांख्य के प्रति, शब्दः = शब्द, परिणामी = परिणामी, कृतकत्वात् = कृतक होने से। सूत्रार्थ : सांख्य के प्रति कहना है कि शब्द परिणामी है क्योंकि वह कृतक है। __संस्कृतार्थ : परिणामी शब्दः कृतकत्वादिति कथनं सांख्यम्प्रत्यसिद्धो हेत्वाभासो विद्यते। टीकार्थ : शब्द परिणामी है, कृतक होने से। इस प्रकार के कथन को सांख्य के प्रति कहना असिद्ध हेत्वाभास है। . 149
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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