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________________ संस्कृतार्थ : शुचि नरशिरः कपालं प्राण्यंगत्वात्, शंखशुक्तिवत्। यञ्च प्राण्यंगं तत् पवित्रं, यथा शंखः शुक्तिश्चेति / अत्रायं पक्षो लोकबाधितो विद्यते। यतो लोके प्राण्यंगत्वेऽपि किंचिद् वस्तु पवित्रं किञ्चिच्चापवित्रं मतम्। टीकार्थ : मनुष्य का सिर पवित्र होता है, प्राणी का अंग होने से शंख शुक्ति के समान और जो प्राणी का अंग है वह पवित्र होता है, जैसे-शंख और सीप। इसमें यह पक्ष लोकबाधित है। लोक में प्राणी का अंग होने पर कोई वस्तु पवित्र होती है और कोई अपवित्र होती है, ऐसा माना गया है। विशेष : लोक में प्राणी का अंग समान होने पर भी किसी वस्तु को पवित्र माना गया है और किसी को अपवित्र / किन्तु नर-कपाल आदि को जो अपवित्र ही माना गया है, अतः यह लोकबाधितपक्षाभास का उदाहरण है। अब स्ववचनबाधितपक्षाभास का उदाहरण कहते हैं - माता मे बन्ध्या, पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भत्वात् ... प्रसिद्धबन्ध्यावत्॥20॥ सूत्रान्वय : माता = माँ, मे = मेरी, बंध्या = बाँझ, पुरुषसंयोगे = पुरुष का संयोग होने पर, अपि=भी, अगर्भत्वात् गर्भ नहीं होने से, प्रसिद्ध बन्ध्यावत् = प्रसिद्ध बंध्या के समान। सूत्रार्थ : मेरी माता बंध्या है, क्योंकि पुरुष का संयोग होने पर भी उसके गर्भ नहीं रहता। जैसे - प्रसिद्ध बन्ध्या स्त्री। संस्कृतार्थ : माता मे बन्ध्या, पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भत्वात् प्रसिद्धबन्ध्यावत् / स्वस्मिन् पुत्रत्वं जनन्यां मातत्वेवा स्वीकुर्वन्नपि कथयति, यन्माता मे बन्ध्या। 'अतोऽत्रायं पक्षः स्ववचनबाधितो विद्यते। टीकार्थ : मेरी माता बन्ध्या है, पुरुष का संयोग होने पर भी गर्भ नहीं रहता, प्रसिद्ध बन्ध्या के समान। अपने में पुत्रपने का, जननी में मातापने को स्वीकार करता हुआ भी कहता है कि जो मेरी माता है वह बन्ध्या है। इसलिए इसमें यह पक्ष स्ववचनबाधित है। 146
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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