________________ क्योंकि कृतक हेतु से तो परिणामीपने की ही सिद्धि होती है। अब आगमबाधितपक्षाभास का उदाहरण कहते हैं प्रेत्यासुखदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत्॥18॥ सूत्रान्वय : प्रेत्य = परलोक में, असुखदः = सुख नहीं हैं (दुःख देने वाला है) धर्मः = पुण्य, पुरुषाश्रितत्वात् = पुरुषाश्रित होने से, अधर्मवत् = अधर्म के समान। सूत्रार्थ : धर्म परलोक में दुःख देने वाला होता है, क्योंकि वह पुरुष के आश्रित है, जैसे - अधर्म। संस्कृतार्थ : प्रेत्यासुखदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वात्, अधर्मवत् / यो यः पुरुषाश्रितः स सः दुःखदायी, यथा अधर्मः / अत्रायं पक्षः आगमबाधितो वर्तते। यतः आगमे धर्मः सुखदायी प्रोक्तः अधर्मश्च दुःखदायी प्रोक्तः / यद्यपि द्वावपीमौ पुरुषाश्रितो, तथापि भिन्नस्वभावौ विद्यते। ___टीकार्थ : धर्म परलोक में दुःख देने वाला है। पुरुषाश्रित होने से, अधर्म के समान / जो - जो पुरुषाश्रित होता है वह-वह दुःखदायी होता है जैसे - अधर्म / इसमें यह पक्ष आगमबाधित है, क्योंकि आगम में धर्म को सुखदायी कहा गया है और अधर्म को दुःखदायी कहा गया है, यद्यपि दोनों पुरुष के आश्रित हैं तथापि ये भिन्न स्वभाव वाले हैं। विशेष : पुरूष का आश्रितपना समान होने पर भी आगम में धर्म को परलोक में सुख का कारण कहा गया है। अब लोकबाधितपक्षाभास का उदाहरण कहते हैं - शुचि नरशिर:कपालं प्राण्यंगत्वाच्छंखशुक्तिवत्॥19॥ सूत्रान्वय : शुचिः = पवित्र, नरशिरः = मनुष्य के सिर का, कपालं = कपाल, प्राणी = जीव का, अङ्गत्वात्= अंग होने से, शंखशुक्तिवत् = शंख, सीप के समान। सूत्रार्थ : मनुष्य के सिर का कपाल पवित्र है, प्राणी का अंग होने से जैसे शंख और सीप। 145