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________________ होता है, उसी प्रकार उसमें समवाय सम्बन्ध से रहने वाले रस का भी आँख से ज्ञान होना चाहिए, परन्तु होता नहीं है। (इसे विस्तृत रूप से प्रमेयरत्नमाला में देखें) अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं, बौद्धस्याकस्माद् धूमदर्शनाद् वह्नि विज्ञानवत्॥6॥ सूत्रान्वय : अवैशद्ये = अविशद में, प्रत्यक्षं = प्रत्यक्ष को, तदाभासं = प्रत्यक्षाभास, बौद्धस्य = बौद्ध के, अकस्मात् = अचानक, धूमदर्शनात् = धूम देखने से, वह्निविज्ञानवत् = अग्निज्ञान के समान। सूत्रार्थ : बौद्ध का अविशदरूप निर्विकल्प ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना प्रत्यक्षाभास है। जैसे-अचानक धुआँ देखने से उत्पन्न हुआ अग्नि ज्ञान अनुमानाभास है। . संस्कृतार्थ : अवैशये प्रत्यक्षं प्रत्यक्षाभासमाहुः / यथा बौद्धस्याकस्मात् धूमदर्शनात् वह्निविज्ञानं प्रत्यक्षाभासो विज्ञेयः। टीकार्थ : अविशद ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना प्रत्यक्षाभास है। जैसे कि बौद्ध लोग अकस्मात् धूम देखने से पैदा हुए अग्नि के ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं। उनका यह ज्ञान प्रत्यक्षाभास है। अब परोक्षाभास को कहते हैं - वैशोऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत्॥7॥ सूत्रान्वय : वैशये = विशद होने पर, अपि = भी, परोक्षं = परोक्ष को, तदाभासं = परोक्षाभास, मीमांसकस्य = मीमांसक के, करणज्ञानवत् = करणज्ञान के समान। सूत्रार्थ : विशदज्ञान को भी परोक्ष मानना परोक्षाभास है। जैसे - मीमांसक करणज्ञान को परोक्ष मानते हैं, उनका ऐसा मानना परोक्षाभास है। संस्कृतार्थ : वैशद्येऽपि परोक्षज्ञानं परोक्षास्ते व्यावर्ण्यते / यथा मीमांसकस्य करणज्ञानं परोक्षाभासो विज्ञेयः। टीकार्थ : विशद ज्ञान को भी परोक्ष मानना परोक्षाभास कहा जाता 139
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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