________________ हुए पदार्थ का ज्ञान / निर्विकल्पज्ञान प्रमाण नहीं होता, क्योंकि वह अपने विषय का निश्चायक नहीं होता है। जैसे-चलते हुए पुरुष के तृण स्पर्शादि का ज्ञान। संशयादि ज्ञान भी प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि अपने विषय के निश्चायक नहीं हैं, जैसे-स्थाणु में पुरुष आदि का ज्ञान / अब सन्निकर्षवादी के प्रति दूसरा दृष्टान्त कहते हैं - चक्षुरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च॥5॥ सूत्रान्वय : चक्षुरसयोः = चक्षु और रस के, द्रव्ये = द्रव्य में, च = और, संयुक्तसमवायवत् = संयुक्त समवाय के समान। सूत्रार्थ : द्रव्य में चक्षु और रस के संयुक्त समवाय के समान। ___ संस्कृतार्थ : यथा घटपटादिपदार्थेषु चक्षुरसयोः संयुक्तसमवायाख्य सन्निकर्षः विद्यमानोऽपि न प्रमाणं तस्याचेतनत्वेन प्रमिति क्रियाम्प्रतिकारणत्वाभावात्। किञ्च असन्निकृष्टस्यैव चक्षुषो रूपजनकत्वं दृश्यते, अप्राप्यकारित्वात् तस्य। विशेषश्चात्र न्यायदीपकाग्रन्थाद् अग्रिम लेखमालया वा विज्ञेयः। टीकार्थ : जैसे घट-पटादि पदार्थों में, चक्षु और रस में संयुक्त समवाय नाम का सन्निकर्ष विद्यमान होने पर भी प्रमाण नहीं है, उसके अचेतन होने से प्रमिति क्रिया के प्रति करणपने का अभाव होने से और असन्निकृष्ट के ही चक्षुष के रूप उत्पन्न करते हुए देखा जाता है, अप्राप्यकारि होने से उस चक्षु इन्द्रिय के और इसको विशेष रूप से न्यायदीपिका ग्रन्थ से अथवा आगे लेखमाला में से जानना चाहिए। विशेष : इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग को सन्निकर्ष कहते हैं। नैयायिक सन्निकर्ष के छ: भेद मानते हैं - संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसंवेत समवाय, समवाय, समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्य भाव। आँख से घड़े को जानना संयोग सन्निकर्ष है। घड़े के रूप को जानना संयुक्त समवाय है, क्योंकि आँख के साथ घड़े का संयोग सम्बन्ध है और घड़े के साथ रूप का समवाय सम्बन्ध है। प्रकृत में इसी से प्रयोजन है। आचार्य भगवन् कहते हैं कि - जैसे घड़े और रूप का समवाय सम्बन्ध है, उसी प्रकार रस का भी समवाय सम्बन्ध है। इसलिए जैसे-आँख से घड़े को रूप का ज्ञान 138