________________ का, अभावात् = अभाव होने से। सूत्रार्थ : क्योंकि वे अपने विषय का निश्चय नहीं करते हैं। .. संस्कृतार्थ : अस्वसंविदितादयः स्वस्वविषयनिश्चायकत्वाभावात् प्रमाणाभासाः प्रोच्यन्ते। टीकार्थ : अस्वसंविदित आदि अपने अपने विषय के निश्चायक न होने से प्रमाणाभास कहे जाते हैं। अब आचार्य भगवन् ऊपर कहे गए प्रमाणाभासों के यथाक्रम से दृष्टान्त कहते पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तॄणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत्॥4॥ सूत्रान्वय : पुरुषान्तर = दूसरे पुरुष का, पूर्वार्थ = गृहीतार्थ, गच्छत् = जाते हुए पुरुष के, तृणस्पर्श = तृण (घास, तिनका) स्पर्श, स्थाणुपुरुषादि = स्थाणु से पुरुषादि के, ज्ञानवत् = ज्ञान के समान। . सूत्रार्थ : दूसरे पुरुष का ज्ञान गृहीतागृहीतज्ञान, चलते हुए पुरुष के तृण स्पर्शी ज्ञान के समान स्थाणु है या पुरुष ऐसे संशयादि ज्ञान प्रमाणाभास हैं। नोट : पुरुषान्तरं च पूर्वार्थं च, गच्छत्तृणस्पर्शं च, स्थाणुपुरुषादि च तेषां ज्ञानम् तद्वत् सूत्र में इस प्रकार द्वन्द्व समास कर लेना चाहिए। .. संस्कृतार्थ : यथा पुरुषान्तरज्ञानं, धारावाहिज्ञानं, गच्छत्तृणस्पर्शज्ञानं तथा स्थाणुपुरुषज्ञानम् इत्यादि ज्ञानानां स्वस्वविषयनिश्चायकत्वाभावेन प्रमाणाभासत्वमुत्पद्यते तथा अस्वसंविदितादिज्ञानानामपि प्रमाणाभासत्वं सिद्धयति। टीकार्थ : जैसे दूसरे पुरुष का ज्ञान, धारावाही ज्ञान, जाते मनुष्य के तृणस्पर्शी ज्ञान तथा स्थाणु में पुरुष का ज्ञान इत्यादि ज्ञानों के अपने-अपने विषय को निश्चय रूप से नहीं जानते इसलिए प्रमाणाभास हैं, उसी प्रकार अस्वसंविदित ज्ञानों के भी प्रमाणाभासपना सिद्ध होता है। विशेष : अस्वसंविदित ज्ञान प्रमाण नहीं होता, क्योंकि वह अपने विषय का निश्चायक नहीं है। जैसे-दूसरे पुरुष का ज्ञान / गृहीतार्थज्ञान प्रमाण नहीं होता क्योंकि वह अपने विषय का निश्चायक नहीं है। जैसे-पूर्व में जाने 137