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________________ सूत्रान्वय : यः = जो, प्रमिमीते = जानता है, सः = वह, एव = ही, निवृत्तज्ञानः = अज्ञान निवृत्त होता है, जहाति = त्यागता है, आदत्तेः = ग्रहण करता है, उपेक्षते= उपेक्षा करता है, च = और, इति = इस प्रकार, प्रतीतेः = प्रतीति से सिद्ध है। सूत्रार्थ : जो (जानने वाला) प्रमाण से पदार्थ को जानता है, उसी का अज्ञान निवृत्त होता है, अप्रशस्त पदार्थ का त्याग करता है, इष्ट का ग्रहण करता है अथवा उपेक्षा करता है। यह बात प्रतीति सिद्ध है। संस्कृतार्थ : तद्धि प्रमाणफलम् एकप्रमातृसम्बन्धापेक्षया कथञ्चित् प्रमाणादभिन्न विद्यते / तद्यथा - यः आत्मा पदार्थं जानाति, स एव पदार्थविषयिकाज्ञानरहितः सन् पदार्थं त्यजति, गृह्णाति, उपेक्षते चेति प्रतीतेः। टीकार्थ : प्रमाण का फल प्रमाता (ज्ञाता) की अपेक्षा से कथञ्चित् प्रमाण से अभिन्न है, जो आत्मा पदार्थ को जानती है, वही पदार्थ विषयक अज्ञान से रहित होती हुई पदार्थ को त्यागती है, ग्रहण करती है और उपेक्षा करती है इस प्रकार प्रतीति होती है। विशेष : इस सूत्र का भाव यह है कि जिस ही आत्मा की प्रमाण के आकार से परिणति होती है, उसके ही फल रूप से परिणाम होता है। इस प्रकार एक प्रमाता की अपेक्षा प्रमाण और फल में अभेद है। कारण और क्रिया रूप परिणाम के भेद से प्रमाण और फल में भेद है। इति पञ्चमः परिच्छेदः समाप्तः (इस प्रकार पाँचवां परिच्छेद पूर्ण हुआ) 134
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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