________________ के दो भेद हैं। अब प्रथम भेद तिर्यक् सामान्य को उदाहरण सहित कहते हैं - सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत्॥4॥ सूत्रान्वय : सदृशपरिणामः = सदृश परिणाम को, तिर्यक् = तिर्यक्, खण्ड = खण्डी, मुण्डादिषु = मुण्डी आदियों में, गोत्ववत् = गायों में गोपना। सूत्रार्थ : सदृश परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं। जैसे खण्डी, मुण्डी आदि गायों में गोपना। __ संस्कृतार्थ : सादृश्यात्मको धर्मस्तिर्यक् सामान्यं प्रोच्यते, यथा खण्डमुण्डादिषु गोषु गौत्वम्। टीकार्थ : सामान्य परिणमन रूप धर्म को तिर्यक् सामान्य जैसे खण्डी मुण्डी आदि गायों में गोपना। विशेषार्थ : नित्य और एक रूप गोत्व आदि के क्रम और यौगपद्य से अर्थक्रिया का विरोध है तथा एक सामान्य के एक व्यक्ति में साकल्य रूप से रहने पर अन्य में रहना संभव नहीं है। अतः अनेक और सदृश परिणमन ही सामान्य है। योग लोग सामान्य को नित्य और एक ही मानते हैं, आचार्य भगवन् ने सामान्य को नित्य मानने पर यह दूषण दिया है कि नित्य पदार्थ में क्रम से या युगपत् अर्थक्रिया नहीं बन सकती है। अतः उसे सर्वथा नित्य नहीं, किन्तु कथंचित् नित्य मानना चाहिए तथा सामान्य को एक माना जाए तो यह दूषण आयेगा कि वह गोत्वादि रूप सामान्य जब एक काली या धवली गाय में पूर्णरूप से रहेगा तब अन्य गायों में उसका रहना असंभव होने से अभाव मानना पड़ेगा। अतः वह एक नहीं, किन्तु अनेक है और सदृश परिणाम ही उसका स्वरूप है। अब आचार्य भगवन् सामान्य के दूसरे भेद को दृष्टान्त के साथ कहते हैं - परापरविर्वतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु॥5॥ सूत्रान्वय : पर = पूर्व, अपर = उत्तर, विवर्त = पर्याय, व्यापि = रहने वाले, द्रव्यम् = द्रव्य को, ऊर्ध्वता = ऊर्ध्व सामान्य, मृदिव = जैसे मिट्टी में, 128