________________ परिणत्या अर्थक्रिया सिद्धे च वस्तु सामान्यविशेषात्मकम् अनेकधर्मात्मकं वा सिद्धयति। टीकार्थ : गौ, गौ, इस प्रकार अन्वयरूप (यह वही है ऐसे) ज्ञान को अनुवृत्तप्रत्यय कहते हैं तथा यह काली है, यह चितकबरी है, इत्यादि भिन्नभिन्न (यह वह नहीं है) प्रतीति को व्यावृत्त कहते हैं / पदार्थों के कार्य को अर्थ क्रिया कहते हैं। वस्तुतः पदार्थ के पूर्वाकार का विनाश और उत्तराकार का प्रादुर्भाव इन दोनों सहित स्थिति को परिणाम कहते हैं। अनुवृत्त और व्यावृत्त इनमें द्वन्द्व समास है और प्रत्यय के साथ कर्मधारय समास है, इन दो प्रकार के प्रत्ययों का विषय होना, उसके भाव को तत्त्व कहते हैं। पूर्वाकार और उत्तराकार इन दोनों पदों का यथाक्रम से परिहार और अवाप्ति इन दोनों पदों के साथ सम्बन्ध करना चाहिए। इन दोनों के साथ जो स्थिति है, वही लक्षण जिस परिणाम का है, उस परिणाम से अर्थक्रिया बन जाती है। इसलिए वस्तु सामान्य विशेषात्मक अथवा अनेक धर्मात्मक रूप सिद्ध हो जाती है। 265. इस सूत्र में किसे सिद्ध करने के लिए कितने हेतु दिए है ? पदार्थ सामान्य विशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक या अनेक धर्मात्मक है, इसे सिद्ध करने के लिए आचार्य भगवन् ने इस सूत्र में दो हेतु दिए हैं - 1. पदार्थ अनुवृत्त और व्यावृत्तप्रत्यय का विषय है। 2. उत्पादव्यय- ध्रौव्यात्मकता से पदार्थ की सिद्धि की गयी है। अब प्रथम कहे गए सामान्य के भेद दिखलाते हुए आचार्य उत्तरसूत्र कहते हैं - सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात्॥3॥ सूत्रान्वय : सामान्यं = सामान्य, द्वेधा = दो प्रकार, तिर्यक् =तिरछा, ऊर्ध्वता= ऊर्ध्वपना, भेदात् = भेद से। . सूत्रार्थ : सामान्य के दो भेद हैं-तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वपना सामान्य। संस्कृतार्थ : तिर्यक् सामान्यं ऊर्ध्वता सामान्यं चेति सामान्यस्य द्वौ भेदौ स्तः। टीकार्थ : तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वपना सामान्य के भेद से सामान्य 127