________________ विशेष : उक्त उदाहरण में शिवक का कार्य छत्रक है और उसका कार्य स्थास है, इस प्रकार यह स्थास शिवक के कार्य का अविरोधी कार्य होने से परम्परा से अविरुद्धकार्योपलब्धि में अन्तर्भूत होता है। अब आचार्य दृष्टान्त द्वारा परम्परा हेतु का दूसरा दृष्टान्त देते हैं - नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं, मृगारिसंशब्दनात् कारणविरुद्धकार्यं विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा॥ 89 // सूत्रान्वय : नास्ति = नहीं है, अत्र = इसमें, गुहायां = गुफा में, . मृगक्रीडनम् = मृगक्रीड़ा, मृगारि = सिंह का, संशब्दनात् = गर्जना होने से, कारणविरुद्धकार्यं = कारणविरुद्धकार्यरूपहेतु को, विरुद्धकार्योपलब्धौ = विरुद्धकार्योपलब्ध में, यथा = जैसे। सूत्रार्थ : इस गुफा में हरिण की क्रीड़ा नहीं है, क्योंकि सिंह की गर्जना हो रही है, यह कारणविरुद्धकार्यरूप हेतु है, इसका विरुद्धकार्योपलब्धि हेतु में अन्तर्भाव होता है। संस्कृतार्थ : नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीड़नं मृगारिसंशब्दनात् / अत्र कारण विरुद्धकार्य विद्यते। अर्थात् मृगक्रीड़ाकारणमृगस्य विरोधिनः सिंहस्य शब्दरूपं कार्यम् उपलभ्यते, अतोऽत्रायं हेतुः च यथा कारण विरुद्ध कार्योपलब्धि विरुद्धकार्योपलब्धिहेतु विज्ञेयः। तथाविरुद्धकार्योपलब्धावन्तर्भवति तथैव कार्यकार्यहेतुरपि अविरुद्धकार्योपलब्धावन्तर्भवति इति भावः / टीकार्थ : इस गुफा में हरिण की क्रीड़ा नहीं है, सिंह की गर्जना होने से, यहाँ पर कारण विरुद्ध कार्य विद्यमान है अर्थात् हरिणक्रीड़ा के कारण हरिण के विरोधी सिंह का शब्द रूप कार्य पाया जाता है। इसलिए इस हेतु का विरुद्धकार्योपलब्धि हेतु में अन्तर्भाव करना चाहिए और जैसे इस कारण विरुद्धकार्योपलब्धि का विरुद्धकार्योपलब्धि हेतु में अन्तर्भाव होता है, उसी प्रकार कार्य-कार्य हेतु का अविरुद्ध कार्योपलब्धि हेतु में अन्तर्भाव होता है। अब यहाँ पर कोई कहता है कि बाल व्युत्पत्ति के लिए अनुमान के पाँचों अवयवों का प्रयोग किया जा सकता है, ऐसा आपने कहा, परन्तु व्युत्पन्नपुरुषों के प्रति प्रयोग का क्या नियम है - इसका समाधान देते हैं - 117