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________________ संस्कृतार्थ : अभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात्। अत्र स्थासरूपहेतुः परंपरया शिवककार्यं विद्यते, साक्षान्नो, साक्षात्कार्यं तु छत्रकं विद्यते / एवमत्रायं स्थासादिति हेतुः कार्यकार्यहेतु विद्यते। ___टीकार्थ : इस चाक पर शिवक हो गया है, क्योंकि स्थास है। यहाँ पर स्थासरूप हेतु परम्परा से शिवक का कार्य है, साक्षात् नहीं, साक्षात् कार्य तो छत्रक है इस प्रकार यह हेतु यहाँ पर (स्थासात्) कार्य-कार्य हेतु हुआ। विशेष : जब कुंभकार घड़ा बनाता है तब घड़ा बनाने से पहले शिवक, छत्रक, स्थास, कोश, कुशूल आदि अनेक पर्यायें होती हैं, तब अंत में घड़ा बनता है। यहाँ चाक पर रखी हुई पिण्डाकारपर्याय का नाम शिवक है, उससे पीछे वाली पर्याय का नाम छत्रक है और उसके पश्चात् होने वाली पर्याय का नाम स्थास है इसी व्यवस्था के अनुसार यह उदाहरण दिया गया है, शिवकरूप पर्याय हो चुकी है क्योंकि अभी स्थासरूप पर्याय है। अतः ज्ञात हुआ कि शिवक का कार्य छत्रक है और उसका कार्य स्थास है, अतः स्थास शिवक के कार्य का परम्परा से कार्य है, साक्षात् नहीं, क्योंकि साक्षात् कार्य तो छत्रक है। अब उक्त हेतु की क्या संज्ञा है और किस हेतु में उसका अन्तर्भाव होता है, ऐसी आशंका होने पर आचार्य उत्तर देते हैं - कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ॥ 88 // सूत्रान्वय : कार्यकार्यम् = कार्य के कार्यरूप, अविरुद्धकार्योपलब्धौ = अविरुद्धकार्योपलब्धि में। सूत्रार्थ : कार्य के कार्यरूप उक्त हेतु का अविरुद्धकार्योपलब्धि में अन्तर्भाव होता है। नोट : यहाँ सूत्र में अन्तर्भावनीयम्' पद का अध्याहार करना चाहिए। संस्कृतार्थ : कार्यकार्य (परम्पराकार्य) रूप हेतुरविरुद्ध कार्योपलब्धि -हेतावन्तर्भवति। टीकार्थ : कार्यकार्य रूप हेतु का अविरुद्धकार्योपलब्धि में ही अन्तर्भाव हो जाता है। 116
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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