________________ (अभाव) अनुपलम्भ है। इसलिए यह हेतु अविरुद्ध स्वाभावानुपलब्धि हुआ। विशेष : यहाँ पर पिशाच और परमाणु आदिक के व्यभिचार के परिहारार्थ उपलब्धि लक्षण प्राप्ति के योग्य होने पर भी इतना विशेषण ऊपर से लगाना है। यदि कोई ऐसा कहे कि यहाँ पर भूतप्रेतादि नहीं हैं अथवा परमाणु नहीं हैं, क्योंकि उनकी अनुपलब्धि है। यह व्यभिचारी हेतु है। संभव है कि वे भूत-पिशाचादि या परमाणु आदि यहाँ पर हैं और उनका अदृश्य या सूक्ष्म स्वभाव होने से हमें उनकी उपलब्धि न हो रही हो अतः इस प्रकार के दोष को दूर करने के लिए आचार्य ने उक्त विशेषण दिया है अतः घट का स्वभाव उपलब्धि के योग्य है। फिर भी वह घट यहाँ उपलब्ध नहीं हो रहा है। अतः यह अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि रूप हेतु का उदाहरण है। अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि हेतु को कहते हैं - नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः॥ 76 // सूत्रान्वय : नास्ति = नहीं है, अत्र = यहाँ पर, शिंशपा = शीशम, वृक्ष = वृक्ष, अनुपलब्धेः = प्राप्ति नहीं होने से। संस्कृतार्थ : नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः / व्यापकवृक्षं विना व्याप्य स्वरूपः शिंशपाः भवितुं नार्हति / अर्थादत्र व्यापकवृक्षानुपलब्धिः व्याप्यशिंशपा प्रतिषेधं साधयति / अतोऽयं वृक्षानुपलब्धिहेतुः अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि हेतुः सम्भूतः। टीकार्थ : यहाँ पर शीशम नहीं है, वृक्ष की अनुपलब्धि है। व्यापक वृक्ष के बिना व्याप्य स्वरूप शिंशपा हो नहीं सकता, अर्थात् यहाँ व्यापक वृक्ष की अनुपलब्धि व्याप्य शीशम के प्रतिषेध को सिद्ध करती है। इसलिए यह हेतु अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि हेतु प्राप्त हुआ। ' अब अविरुद्ध कार्यानुपलब्धि हेतु को कहते हैं - नास्त्यत्राप्रतिबद्ध-सामोऽग्नि —मानुपलब्धेः॥ 77 // सूत्रान्वय : नास्ति = नहीं है, अत्र = यहाँ, अप्रतिबद्ध = बिना रुकी, सामर्थ्य : = सामर्थ्य वाली, अग्निः = आग, धूम = धुआँ, अनुपलब्धेः = प्राप्ति 109