________________ चुका है तथा हो चुके भरणि के उदय का निषेध करेगा। इसलिए यहाँ यह पुष्योदयत्व हेतु विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि होगा। विशेष : यहाँ पर भरणि के उदय का विरोधी पुनर्वसु नक्षत्र का उदय पाये जाने से यह विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि हेतु का उदाहरण है। अब विरुद्धोसहचरोपलब्धि हेतु को कहते हैं - नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात्॥73॥ सूत्रान्वय : नास्ति = नहीं है, अत्र = इसमें, भित्तौ = दीवाल में,परभाग =उस ओर के भाग, अभावः = अभाव, अर्वाग्भाग = इस ओर का भाग, दर्शनात् = दिखाई दे रहा है। सूत्रार्थ : इस दीवाल में उस ओर के भाग का अभाव नहीं है क्योंकि इस ओर का भाग दिखाई दे रहा है। . संस्कृतार्थ : नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात्। अत्र परभागाभावाद् विरुद्धः परभागसद्भावसहचरोऽर्वाग्भागो दृश्यते / अर्थात्पर - भागसद्भावसहचरो विद्यतेऽतः सः परभागसद्भावमेव साधयिष्यति। अतोऽत्रायं अर्वाग्भागदर्शनत्वहेतुः विरुद्धसहचरोपलब्धिहेतुः जातः। . टीकार्थ : इस दीवाल में उस ओर के भाग का अभाव नहीं इस ओर का भाग दिखने से / यहाँ पर उस ओर के भाग के अभाव से विरुद्ध उस ओर के भाग का सद्भाव का साथी इस तरफ का भाग दिखाई दे रहा है। अर्थात् उस तरफ के भाग के सद्भाव का सहचर विद्यमान है। इसलिए वह उसके सद्भाव को ही साधेगा। इसलिए विरुद्धसहचर उपलब्धि हेतु हुआ। _ विशेष : परभाग के अभाव का विरोधी उसका सद्भाव है, उसका सहचारी इस ओर का भाग पाया जाता है। अब अविरुद्धानुपलब्धि के भेद को कहते हैं - अविरुद्धानुपलब्धि: प्रतिषेधे सप्तधा स्वभाव व्यापक कार्य कारण पूर्वोत्तर सहचरानुपलम्भभेदात्॥ 77 // . सूत्रान्वय : अविरुद्धानुपलब्धिः = अविरुद्धानुपलब्धि, प्रतिषेधे = 107