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________________ स्पर्शसाध्य शीतस्पर्श से विरुद्ध अग्नि का कार्यरूप धूम प्राप्त है, अग्नि का कार्य धूम रहकर अग्नि को ही जनावेगा, शीतस्पर्श को नहीं, इससे यहाँ यह धूमहेतु विरुद्ध कार्योपलब्धि हेतु होगा। विशेष : यहाँ भी प्रतिषेध के योग्य साध्य जो शीत स्पर्श उसकी विरुद्ध जो अग्नि उसका कार्य धूम पाया जाता है, अतः यह विरुद्ध कार्योपलब्धि हेतु का उदाहरण है। अविरुद्ध कारणोपलब्धि (सहचर हेतु) को कहते हैं - नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात्॥70॥ सूत्रान्वय : न = नहीं, अस्मिन् = इस, शरीरिणि = प्राणी में, सुखम् = सुख अस्ति = है, हृदयशल्यात् = हृदय में शल्य होने से। सूत्रार्थ : इस प्राणी में सुख नहीं है क्योंकि हृदय में शल्य पाई जाती संस्कृतार्थ : नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात्। अत्र सुख विरोधिनो दुःखस्य कारणं हृदयशल्यरूप हेतुः विरुद्धकारणोपलब्धि हेतुर्जातः। टीकार्थ : इस प्राणी में सुख नहीं है, क्योंकि हृदय में शल्य होने से क्योंकि यहाँ पर सुख की विरोधिनी दुःख की कारण हृदय शल्य (मानसिक पीड़ा) विद्यमान है। इसलिए यहाँ यह हृदय शल्य हेतु विरुद्ध कारणोपलब्धि हेतु है। विशेष : सुख का विरोधी दुःख है, उसका कारण हृदय की शल्य पाये जाने से यह विरुद्धकारणोपलब्धि हेतु का उदाहरण है। अब विरुद्धोपूर्वचरोपलब्धि हेतु को कहते हैं - नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात्॥71॥ सूत्रान्वय : न = नहीं, उदेष्यति = उदित होगा, मुहूर्तान्ते = एक मुहूर्त के पश्चात्, शकटं = रोहिणी, रेवती = रेवती का, उदयात् = उदय होने से। सूत्रार्थ : एक मुहूर्त के पश्चात् रोहिणी उदय नहीं होगा क्योंकि अभी रेवती नक्षत्र का उदय हो रहा है। 105
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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