________________ अब साध्य से विरुद्धव्याप्योपलब्धि हेतु को कहते हैं - ___ नास्त्यत्र शीतस्पर्शः औष्ण्यात्॥ 68 // सूत्रान्वय : नास्ति = नहीं है, अत्र = इसमें, शीतस्पर्श = शीत का स्पर्श,औष्ण्यात् = उष्णता होने से। सूत्रार्थ : यहाँ पर शीत स्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता पाई जाती है। संस्कृतार्थ : नास्त्यत्र शीतस्पर्शः औष्ण्यात् / अत्र प्रतिषेधरूपसाध्यात् शीतस्पर्शात् विरुद्धस्याग्नेः व्याप्यस्वरूप उष्णता वद्यते। यस्य व्याप्यं विद्यते तत्तदेव साधयिष्यति। इत्थमत्र औष्ण्यत्वहेतुः शीतस्पर्शसाध्याविरुद्धव्याप्यम् अग्निमेव साधयिष्यति / अतोऽयं हेतुर्विरुद्धव्याप्योपलब्धिहेतुः भवेत्। टीकार्थ : यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, उष्णता होने से। यहाँ पर प्रतिषेधरूप साध्य शीतस्पर्श से विरुद्ध अग्नि की व्याप्य स्वरूप उष्णता विद्यमान है। जिसका व्याप्य विद्यमान है, वह उसी को ही साधेगा अतएव यहाँ औष्ण्यत्व हेतु शीतस्पर्श साध्य के अविरुद्ध व्याप्योपलब्धि हेतु कहा जाएगा। विशेष : यहाँ शीत स्पर्श प्रतिषेध्य है, उसकी विरोधी अग्नि है, उसकी व्याप्य उष्णता पाई जा रही है, अतः यह विरुद्ध व्याप्योपलब्धि हेतु का उदाहरण है। अब अविरुद्धकार्योपलब्धि हेतु को कहते हैं - नास्त्यत्र शीतस्पर्श:धूमात्॥ 69 // सूत्रान्वय : नास्ति = नहीं है, अत्र = इसमें, शीतस्पर्शः = शीत का स्पर्श, धूमात् = धूम होने से। - सूत्रार्थ : यहाँ पर शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि धूम है। संस्कृतार्थ : नास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् / अत्र प्रतिषेधरूपसाध्यात् शीतस्पर्शात् विरुद्धस्याग्नेः कार्यस्वरूपो धूमः उपलभ्यते / अग्नेः कार्य स्थित्त्वाग्निमेव साधयिष्यति नो शीतस्पर्शम् / अतोऽत्रायं धूमत्वहेतुर्विरुद्धकार्योपलब्धिहेतुर्भवेत्। टीकार्थ : यहाँ पर शीतस्पर्श नहीं है धूम होने से। यहाँ पर प्रतिषेध 104