SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अविरुद्ध सहचरोपलब्धि (सहचर हेतु) का उदाहरण - अस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात्॥ 66 // सूत्रान्वय : अस्ति = है, अत्र = इसमें, मातुलिंगे = नींबू में, रूपं = रूप, रसात् = रस होने से। सूत्रार्थ : इस बिजौरे नींबू में रूप है, क्योंकि रस पाया जाता है। संस्कृतार्थ : अस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात् / अत्र रसनामक सहचर हेतुः रूपनामकसाध्यं साधयति / अर्थादत्र रूपविरुद्धसहचरस्य रसस्योपलब्धि विद्यते / अतोऽयं हेतुः अविरुद्ध सहचरोपलब्धि हेतुः प्रोच्यते। टीकार्थ : इस बिजौरे नींबू के रूप है, क्योंकि रस नामक सहचर हेतु रूप नामक साध्य को साधता है। अर्थात् यहाँ रूप का अविरुद्ध सहचर रस मौजूद है। इसलिए यह हेतु अविरुद्धसहचरोपलब्धि हेतु कहलाता है। अब आचार्य विरुद्धोपलब्धि के भेद कहते हैं - विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा॥ 67 // . सूत्रान्वय : विरुद्धतदुपलब्धि : = विरुद्धतदुपलब्धि के भी, प्रतिषेधे = प्रतिषेध करने वाली, तथा = उसी प्रकार (छह भेद हैं) . सूत्रार्थ : प्रतिषेध सिद्ध करने वाली विरुद्धोपलब्धि के भी 6 भेद हैं। संस्कृतार्थ : प्रतिषेधसाधिकाया विरुद्धोपलब्धेिः षड् भेदा विद्यन्ते। विरुद्धव्याप्योपलब्धिः, विरुद्धकार्योपलब्धिः विरुद्धकारणोपलब्धि, विरुद्ध पूर्वचरोपलब्धिः, विरुद्धोत्तरचरोपलब्धिः विरुद्धसहचरोपलब्धिश्चेति। टीकार्थ : प्रतिषेध को सिद्ध करने वाली विरुद्धोपलब्धि के भी 6 भेद हैं -1. विरुद्धव्याप्योपलब्धि, 2. विरुद्धकार्योपलब्धि, 3.विरुद्धकारणोपलब्धि, 4. विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि, 5. विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि, 6.विरुद्धसहचरोपलब्धि। ये सभी हेतु प्रतिषेध के साधक हैं। 103
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy