________________ सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच्च॥ 60 // सूत्रान्वय : सहचारिणः = सहचारी पदार्थ के, अपि = भी, परस्पर = परस्पर, परिहारेण = परिहार से, अवस्थानात् = अवस्थान होने से, सहोत्पादात् = एक साथ उत्पन्न होने से, च = और। सूत्रार्थ : सहचारी पदार्थ परस्पर के परिहार से रहते हैं, अतः सहचर हेतु का स्वभाव हेतु में अन्तर्भाव नहीं हो सकता और वे एक साथ उत्पन्न होते हैं अतः उसका कार्य हेतु और कारण हेतु में भी अन्तर्भाव नहीं हो सकता है। ____ संस्कृतार्थ : सहचारिणोरपि साध्यसाधनयोः परस्परपरिहारेणावस्थानात् सहचराख्यहेतोर्न स्वभावहेतावन्तर्भावः। सहोत्पादाच्च न कार्यहेतोः कारणहेतौ वान्तर्भावः तस्मात्सौगतैः सहचराख्योऽपि हेतुः स्वतंत्र एवाभ्युपगन्तव्यः / टीकार्थ : सहचारी पदार्थ के भी साध्य-साधन का परस्पर परिहार से अवस्थान होने से सहचर नामक हेतु का स्वभाव हेतु में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता तथा सहचारी पदार्थ एक साथ उत्पन्न होने से कार्य हेतु अथवा कारण हेतु में भी अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। इसलिए बौद्धों के द्वारा सहचर नामक हेतु को भी स्वतंत्र ही स्वीकार करना चाहिए। विशेष : जैसे गाय के समान समयवर्ती अर्थात् एक काल में होने वाले सत्य (वाम) और इतर (दक्षिण) विषाण (सींग) में कार्य-कारण भाव नहीं माना जाता इसी प्रकार फलादिक में एक साथ उत्पन्न होने वाले रूप और रस में भी कार्य कारण भाव नहीं माना जा सकता। अतः सहचर हेतु को स्वतंत्र ही स्वीकार करना चाहिए। अब क्रम प्राप्त व्याप्य हेतु का उदाहरण देते हुए अन्वय व्यतिरेक पूर्वक शिष्य के अभिप्राय के वश प्रतिपादित प्रतिज्ञादि पाँच अवयवों को प्रदर्शित करते हैं - परिणामी शब्दः कृतकत्वात्, य एवं, स एवं दृष्टो यथा घटः, कृतकश्चायं तस्मात्परिणामीति यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो: यथा वन्ध्यास्तनंधयः कृतकश्चायं, तस्मात्परिणामी॥61॥ सूत्रान्वय : परिणामी = परिणमनशील, शब्दः = शब्द, कृतकत्वात् = 98