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गति चार - नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव; कषाय चार – क्रोध, मान, माया, लोभ; लिंग तीन – पुरुष, स्त्री, नपुंसक; मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, असंयत एक,
असिद्ध एक; लेश्या छह - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ।' . वहीं, सूत्र 7 द्वारा पारिणामिक भाव के तीन भेद बताते हुए वे लिखते हैं - "जीवभव्याभव्यत्वानि च – जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ।”
इसप्रकार औपशमिक आदि पाँच भेदों के कुल त्रेपन प्रभेद हैं। प्रश्न 3: औपशमिक भाव का और उसके भेदों का स्वरूप लिखिए ।
उत्तरः “उपशमः प्रयोजनमस्येति औपशमिकः - जिस भाव का उपशम प्रयोजन है, वह औपशमिक है।" सर्वार्थसिद्धि ।।
__ "तेषामुपशमादौपशमिकः - उन कर्मों के उपशम से होनेवाला भाव औपशमिक है।।" धवला।।
"उपशमेन युक्तः औपशमिकः - उपशम से युक्त भाव औपशमिक है।" पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा 56वीं की समयव्याख्या टीका।।
तात्पर्य यह है कि आत्मा के श्रद्धा और चारित्र संबंधी जिन शुद्ध भावों का निमित्त पाकर मोहनीय कर्म का उपशम होता है अथवा मोहनीय कर्म के उपशम के समय आत्मा में जो भाव होते हैं, उन्हें औपशमिक भाव कहते हैं। औपशमिक शब्द में मूल शब्द 'उपशम' है। उपशम के साथ संबंधवाचक ‘ठञ्' प्रत्यय का प्रयोगकर ‘समाज से सामाजिक के समान' उपशम से औपशमिक शब्द बन जाता है।
जीव के भाव और कर्मों के मध्य पारस्परिक, घनिष्ठतम, सहज बननेवाला निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने से तथा अमूर्तिक, सूक्ष्म जीव के अमूर्तिक, सूक्ष्म भावों को पहिचानने का छद्मस्थ जीव के पास और कोई साधन नहीं होने से मूर्तिक, स्थूल कर्म की अवस्थाओं द्वारा जीव के भावों का परिचय जिनागम में कराया जाता है। जीव और कर्म दोनों में ही पूर्ण स्वतन्त्रता पूर्वक अपनी-अपनी योग्यतानुसार परिणमन होने पर भी काल प्रत्यासत्ति के कारण (दोनों के कार्य एक ही समय में हुए होने से) एक का दूसरे पर आरोप कर दोनों ओर से कथन कर दिया जाता है। ___ इसप्रकार जीव के जिन शुद्ध भावों का निमित्त पाकर मोहनीय कर्म का उपशम होता है, उसकी फल देने की शक्ति दब जाती है, उन्हें अथवा कर्म के उपशम के समय होनेवाले शुद्धभाव को औपशमिक भाव कहते हैं। आठ कर्मों में से उपशम दशा मात्र मोहनीय कर्म में ही होती है। मोहनीय कर्म के मूलतया
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /89