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दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय - ये दो भेद होने से तथा इनका संबंध क्रमशः जीव के श्रद्धा और चारित्र गुण के साथ होने से इसके भी दो भेद हैं - औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ।
औपशमिक सम्यक्त्व - जीव के जिन शुद्ध भावों का निमित्त पाकर दर्शनमोहनीय की एक-दो या तीन और चारित्र मोहनीय की अनन्तानुबंधी संबंधी क्रोध-मान-मायालोभ - इन चार प्रकृतिओं का उपशम होता है, उन्हें; अथवा इन कर्म प्रकृतिओं की उपशम दशा के समय प्रगट हुए जीव के शुद्ध भाव को औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। इसके भी दो भेद हैं - प्रथम औपशमिक/प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीय
औपशमिक/द्वितीयोपशम सम्यक्त्व । उपशमश्रेणी की योग्यता विकसित होने के पूर्व मिथ्यात्व का उपशम कर होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्व को प्रथमोपशम सम्यक्त्व
और उपशमश्रेणी आरोहण की योग्यता विकसित होने के समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्वपूर्वक होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्व को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं।
2. औपशमिक चारित्र - जीव के जिन वीतरागी शुद्ध भावों का निमित्त पाकर समस्त भोहनीय कर्म का उपशम होता है, उन्हें; अथवा इस उपशम दशा के समय प्रगट हुए जीव के शुद्ध भावों को/यथाख्यात चारित्र को औपशमिक चारित्र कहते हैं।
इसप्रकार' औपशमिक भाव के दो भेद हैं। प्रश्न 4: क्षायिक भाव का और उसके भेदों का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः "क्षयः प्रयोजनमस्येति क्षायिकः - जिस भाव का क्षय प्रयोजन है, वह क्षायिक है।"
"तेषां क्षयाद् क्षायिकः - उन कर्मों के क्षय से होनेवाला भाव क्षायिक है।" .
"क्षयेन युक्तः क्षायिकः - क्षय से युक्त भाव क्षायिक है।” .. तात्पर्य यह है कि आत्मा के जिन शुद्ध भावों का निमित्त पाकर कर्मों का क्षय होता है, उन्हें; अथवा कर्मों की क्षय रूप दशा के समय होनेवाले जीव के शुद्धभावों को क्षायिक भाव कहते हैं। 'क्षय' शब्द के साथ संबंधवाचक ठञ् प्रत्यय का प्रयोग कर क्षायिक शब्द बनता है।
'कर्मों का क्षय होता है' अर्थात् कर्मों की अकर्मदशा हो जाती है। अब उस क्षायिक भाव से परिणमित जीव के साथ उनका किसी भी प्रकार का निमित्तनैमित्तिक संबंध नहीं रह जाता है। आगे अनंतकाल पर्यंत कभी भी कर्म रूप से
पंचभाव /90