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परिग्रह का क्या करेगा ? अर्थात् स्वयं में ही, स्वयं का सब कुछ, स्वयं से ही, स्वयं को सदा-सदा के लिए ही उपलब्ध हो जाने से ज्ञानी को अन्य कुछ भी इच्छा उत्पन्न । नहीं होती है; वह सतत निराकुल अतीन्द्रिय आनन्द का पान करता है।'
इसप्रकार समस्त पर पदार्थों से पूर्णतया निरपेक्ष, स्वाधीन, शाश्वत, निराकुल, अतीन्द्रिय आनन्द ही वास्तविक सुख है। आत्मा स्वयं शाश्वत सुख स्वभावी होने से वह आत्म-स्थिरता से ही पर्याय में प्रगट होता है; अतः सुखी होने के लिए तत्त्वअभ्यास पूर्वक स्व-पर का भेदविज्ञान कर; समस्त पर पदार्थों को, विकल्पों को गौणकर स्वरूपलीन रहने का, आत्म-संतुष्ट रहने का सतत प्रयास करना चाहिए। यही सम्यक् रत्नत्रय सम्पन्न साधक दशा है; आत्मानुभूति, सुखानुभूतिमय अवस्था है। इस प्रयास की पूर्णता अर्थात् परिपूर्ण स्वरूप-स्थिरता ही अव्याबाध सुखमय दशा है।
== सुखी होने का उपाय = जिन जीवों को दुःख से छूटना हो, वे इच्छा दूर करने का उपाय करो तथा इच्छा दूर तब ही होती है, जब मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम का अभाव हो और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति हो, इसलिए इसी कार्य का उद्यम करना योग्य है। ऐसा साधन करने पर जितनी-जितनी इच्छा मिटे, उतना-उतना दु:ख दूर होता जाता है और जब मोह के सर्वथा अभाव से सर्व इच्छा का अभाव हो, तब सर्व दु:ख मिटता है, सच्चा सुख प्रगट होता है तथा ज्ञानावरणदर्शनावरण और अन्तराय का अभाव हो, तब इच्छा के कारणभूत क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन का तथा शक्तिहीनपने का भी अभाव होता है, अनन्त ज्ञानदर्शन-वीर्य की प्राप्ति होती है तथा कितने ही काल पश्चात् अघाति कर्मों का भी अभाव हो, तब इच्छा के बाह्य कारणों का भी अभाव होता है, क्योंकि मोह चले जाने के बाद किसी भी काल में कोई इच्छा उत्पन्न करने में समर्थ नहीं थे, मोह के होने पर कारण थे, इसलिए कारण कहे हैं, उनका भी अभाव हुआ, तब जीव सिद्धपद को प्राप्त होते हैं।
वहाँ दु:ख का तथा दु:ख के कारणों का सर्वथा अभाव होने से सदाकाल अनुपम, अखंडित, सर्वोत्कृष्ट आनन्दसहित अनन्तकाल विराजमान रहते हैं।
मोक्षमार्गप्रकाशक, तीसरा अधिकार, पृष्ठ-७२ सुख क्या है? /86
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