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________________ निष्कर्ष यह है कि अपने आत्मा से उत्पन्न होनेवाला, इन्द्रियातीत, विषयातीत, स्वाधीन, आत्म-सन्तुष्टिरूप अतीन्द्रिय आनन्दमय अनाकुल/निराकुल सुख ही वास्तविक सुख है। इससे विपरीत पंचेन्द्रिय विषय-भोग जन्य, कहा जानेवाला सुख, दुःख ही है; सुख नहीं है। इच्छाओं की पूर्ति से प्रगट होनेवाला सुख, सुख नहीं है; वरन् इच्छाओं की अनुत्पत्ति/अभाव में/इच्छाओं के नहीं होने में व्यक्त होनेवाला निराकुल सुख ही वास्तविक सुख है। ... आत्मा स्वयं ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त-अनन्त गुण/वैभव सम्पन्न होने से स्वयं ज्ञानानन्द स्वभावी है। आत्मा स्वयं आनन्द का कन्द, सुख का सागर है। मैं स्वयं सुख स्वभावी हूँ। मुझे सुखी होने के लिए अन्य कुछ भी नहीं चाहिए; सुख पाने के लिए अन्यत्र कहीं नहीं जाना है। जो जहाँ होता है, वह वहीं से प्राप्त होता है। मैं/आत्मा स्वयं सुख स्वभावी हूँ; अतः अपनी पर्याय में सुख प्रगट करने के लिए ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान आत्मा/स्क्यं को अपनत्वरूप से जानकर, पहिचानकर, उसमें ही स्थिर रहना है, उस मय रहना है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसार की 206वीं गाथा द्वारा इसे इसप्रकार व्यक्त करते हैं - "एदम्हि रदो णिचं, संतुट्ठो होहि णिचमेदम्हि। । एदेण होहि तित्तो, होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।। इस (ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा) में ही रत/प्रीतिवाला हो, इसमें नित्य संतुष्ट हो और इसमें ही तृप्त हो; इससे तुम्हें उत्तम सुख होगा।" आनन्द आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने आत्मा को अपनत्वरूप से ग्रहण कर लेने पर ज्ञानी को अन्य कुछ इच्छाएं स्वयं ही उत्पन्न नहीं होती हैं; अतः वह सतत पर से पूर्ण निरपेक्ष निराकुल अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन करता हुआ स्वयं में संतुष्ट रहता है; यही वास्तविक सुखमय दशा है। ज्ञानी की आत्मसंतुष्टि को आचार्य अमृतचन्द्रदेव समयसार-आत्मख्याति के कलश 144 द्वारा इसप्रकार व्यक्त करते हैं - "अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मानचिन्तामणिरेष यस्मात् । सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते, ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ।। क्योंकि यह (ज्ञानी) स्वयं ही अचिन्त्यशक्तिवाला देव और चिन्मात्र चिन्तामणि है; इसलिए सभी अर्थ/प्रयोजन सिद्ध होने के स्वभाववाला होने से ज्ञानी अन्य के तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /85
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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