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________________ में ही लगे रहते हैं; परन्तु इच्छाएं असीम होने से तथा भोग-सामग्री सीमित होने . से, वे इस प्रयास में भी असफल ही रहते हैं; इससे भी वे आकुल-व्याकुल, दुखी ही रहते हैं। - कुछ लोगों का विचार ऐसा है कि भले ही एक साथ सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो सके; तथापि क्रम-क्रम से जितनी-जितनी इच्छाओं की पूर्ति होती जाएगी, उतने-उतने हम सुखी होते जाएंगे; इसलिए वे इच्छाओं की पूर्ति का सतत प्रयास करते रहते हैं; परन्तु एक इच्छा पूर्ण होते साथ ही अनेक इच्छाएं उत्पन्न हो जाने - से इस प्रयास में भी वे सफल नहीं हो पाते हैं। इससे भी वे आकुल-व्याकुल, दुखी ही बने रहते हैं। इसमें भी भोगों को ही सुख माना गया है, वास्तविक सुख की पहिचान करने का प्रयत्न भी नहीं किया गया है । वास्तव में तो इच्छा की पूर्ति में भासित होनेवाला सुख, सुख नहीं, सुखाभास है, दुःख की अत्यल्प कमी मात्र है; आकुलतामय तथा आकुलता का उत्पादक है। इन सभी मान्यताओं में दुःख को ही सुख मानकर, उसे प्राप्त करने का प्रयास किया गया है; वास्तविक सुख की पहिचान करने का भी प्रयास नहीं किया गया है। वास्तविक सुख का स्वरूप तथा प्रगट करने का उपाय बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव प्रवचनसार ग्रन्थ की 13वीं गाथा में लिखते हैं - “अइसयमादसमुत्थं, विसयातीदं अणोवममणंतं। __अबुच्छिन्नं च सुहं, सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ।। शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं का सुख अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अविच्छिन्न है।" इससे विपरीत लोकमान्य इन्द्रिय सुख का स्वरूप बताते हुए वे वहीं, गाथा 76वीं में लिखते हैं - "सपरं बाधासहिदं, विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धं, तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।। इन्द्रियों से प्राप्त सुख पराधीन, बाधासहित, विच्छिन्न, बंध का कारण और विषम है; वास्तव में ऐसा सुख, दुःख ही है।" ___ आचार्य अमृतचन्द्रदेव समयसार ग्रन्थ की आत्मख्याति टीका के परिशिष्ट में सुख शक्ति का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं – “अनाकुलत्वलक्षणा सुखशक्तिः - अनाकुलता लक्षणवाली सुखशक्ति है।" सुख क्या है? /84
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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