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अपनत्वरूप से जानकर, मानकर, उसमें स्थिरता ही एकमात्र कर्तव्य है । आत्मा स्वयं सुखमय होने से वास्तव में सुख प्राप्त नहीं करना है, भोगना है । आत्मानुभूति ही सुखानुभूति है। ज्ञानानन्दस्वभावी अपने भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से जानकर, पहिचानकर, उसमें ही लीनता / संतुष्टि / तृप्ति सर्वस्व समर्पणता ही आत्मानुभूति / सुखानुभूति है; सम्यक् रत्नत्रय है; निराकुल अतीन्द्रिय आनन्द को पर्याय में प्रगट करने / पाने का एकमात्र उपाय है।
प्रश्न 3: 'सुख क्या है ?' इस विषय पर एक निबंध लिखिए ।
उत्तरः अनादिकाल से प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःख से भयभीत है । अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार सुखी होने का सतत प्रयत्न भी करता है; परन्तु सुख का वास्तविक स्वरूप तथा वह सुख कहाँ से, कैसे प्राप्त किया जाता है ? यह ज्ञात नहीं होने के कारण यह जीव उसे प्राप्त नहीं कर पा रहा है । यह खाने-पीने, पहिननेओढ़ने, घूमने-फिरने, मजा- मौज करने आदि रूप पंचेन्द्रिय विषय-भोगों में प्रवृत्ति को ही सुखमय दशा मानता है, उस विषय सामग्री को सुख -सामग्री मानता है तथा उस सामग्री को एकत्रित करने, पाने के साधनों को सुख के साधन मानता है; परन्तु यह इतना विचार नहीं कर पाता है कि जो स्वयं सुखमय नहीं हैं, जिनमें सुख नामका गुण नहीं है, वे मुझे सुख कहाँ से, कैसे दे देंगे ? यही कारण है कि वह सब विषयसामग्री प्राप्त कर लेने के बाद भी यह जीव पूर्ववत् आकुल-व्याकुल तथा दुखी है।
कुछ विशिष्ट बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति तो सुख को काल्पनिक ही मान लेते हैं। उनका विचार रहता है कि अपने से अधिक सुख-सुविधा सम्पन्न व्यक्ति को देखने से दुःख बढ़ता है; अतः सुखी रहने के लिए सदा अपने से नीचेवालों को देखो तो अपनी स्थिति बहुत अच्छी लगेगी और हम सुखी रहेंगे; परन्तु वे इतना विचार नहीं कर पाते हैं कि दीन-हीनों को देखकर स्वयं को सुखी माननेवाला तो लौकिक सज्जन भी नहीं है। दीन-दुखिओं को देखकर तो सामान्य विचारक भी दयार्द्र हो उठता है और मैं इससे अपना बड़प्पन पुष्ट कर सुखी अनुभव कर रहा हूँ। वास्तव में इसमें भी भोग-सामग्री से ही सुख को मापा गया होने से, निराकुल सुख की पहिचान नहीं होने से इस विचारधारा वाले भी सतत सुखी होने का प्रयास करते हुए भी आकुल- - व्याकुल, दुखी ही रहते हैं ।
कुछ लोग इच्छाओं की पूर्ति को ही सुख मानकर सतत इच्छाओं की पूर्ति तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 83