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इसप्रकार आत्मोत्पन्न, स्वाधीन इच्छाओं की अनुत्पत्तिरूप अतीन्द्रिय आनन्दमय वास्तविक सुख की पहिचान नहीं होने के कारण, सुख के सन्दर्भ में मानीं गईं अज्ञानी की सभी मान्यताएं मिथ्या हैं।
प्रश्न 2: वास्तविक सुख क्या है ? वह कहाँ है और कैसे प्राप्त होता है ?
उत्तरः अपने आत्मा से उत्पन्न होनेवाला, इन्द्रियातीत, विषयातीत, स्वाधीन, आत्म-संतुष्टिरूप अतीन्द्रिय आनन्दमय निराकुल सुख ही वास्तविक सुख है । इन्द्रियों द्वारा भोगा जानेवाला विषय सुख आकुलतामय, पराधीन होने से वास्तव में सुख नहीं है; दुःख का ही एक भेद है । लौकिक जन उसे सुख कहते हैं; अलौकिक ज्ञानी जन भी उन्हें समझाने के लिए उनकी ही भाषा में उसे सुख कह देते हैं; पर वे यही मानते तथा समझाते भी हैं कि यह सुख नहीं है, सुखाभास है, दुःख की थोड़ी सी कमी है तथा विषय-तृष्णा को बढ़ानेवाला होने से दुःख का कारण भी है। वास्तविक सुख तो एक मात्र आत्मोत्पन्न निराकुलतारूप ही है। .
आत्मा स्वयं सुख स्वभावी होने के कारण यह सुख आत्मा का एक विशेष गुण है। अनादि-अनन्त आत्मा में ही रहता है। आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ में नहीं रहता है। जैसे ज्ञान आत्मा का गुण होने से आत्मा में ही रहता है; उसीप्रकार सुख आत्मा का गुण होने से आत्मा में ही रहता है।
जो वस्तु जहाँ होती है, उसे वहाँ ही पाया जा सकता है। जो वस्तु जहाँ है ही नहीं, जिसकी सत्ता की जहाँ सम्भावना ही नहीं है; वहाँ उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? जैसे 'ज्ञान' आत्मा का गुण है; अतः उसकी प्राप्ति चेतनात्मा में ही होती है, जड़ में नहीं; उसीप्रकार 'सुख' भी आत्मा का गुण है, जड़ पदार्थों का नहीं; अतः उसकी प्राप्ति आत्मा में ही होती है, शरीरादि जड़ पदार्थों में नहीं।
जिसप्रकार यह आत्मा स्वयं को ज्ञान का घनपिण्ड न मानकर, ज्ञान की आशा से अन्यत्र भटकता हुआ अज्ञानी हो रहा है; उसीप्रकार यह आत्मा स्वयं को सुख का सागर/आनन्द का कन्द नहीं मानता हुआ, सुख की आशा से परपदार्थों में भटकता हुआ दुखी हो रहा है। इसप्रकार सुख प्राप्त करने की दिशा गलत होने से दशा गलत/दुःख रूप चल रही है।
आत्मा स्वयं सुख का सागर, आनन्द का कन्द है, आनन्दमयी निराकुल तत्त्व है; अतः निराकुलसुख प्राप्त करने के लिए परोन्मुखी दृष्टि छोड़कर; आत्मा को
सुख क्या है? /82