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________________ शिरोमणि तथा आदर्श हैं। वीतरागता की वृद्धि होने पर इसके बाद मुनिदशा ही आती है। इसमें प्रगट वीतरागता वास्तविक धर्म होने से निश्चय प्रतिमा है तथा शेष शुभभाव और तदनुकूल शुभ प्रवृत्तिआँ उसकी निमित्त और सहचारी होने से व्यवहार प्रतिमा कहलाती हैं। प्रश्न 18: निश्चय प्रतिमा और व्यवहार प्रतिमा का अंतर स्पष्ट कीजिए। उत्तरः वास्तव में कोई प्रतिमारूप दशा निश्चय या व्यवहार प्रतिमारूप नहीं होती है; उस प्रतिमा रूप दशा के निरूपण में निश्चय और व्यवहार प्रतिमा – ये दो भेद हैं। इस निरूपण की मुख्यता से विषय-विषयी का अभेद कर उन भावों को भी निश्चय-व्यवहार प्रतिमा कह देते हैं। इन दोनों में निम्नलिखित अन्तर है - निश्चय प्रतिमा , · व्यवहार प्रतिमा 1. दर्शनमोह, अनंतानुबंधी और शेष रहे प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि के अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि के | उदय में होनेवाले शुभभाव और तदनुकूल अभाव में व्यक्त हुई वीतरागता | शारीरिक क्रियाएं व्यवहार प्रतिमा हैं। निश्चय प्रतिमा है। 2. यह स्वयं शुद्धभाव होने से वास्तविक | यह वास्तव में पुण्यास्रव, पुण्यबंध तत्त्व मोक्षमार्ग, संवर-निर्जरा तत्त्व है। | या अजीव तत्त्व है उपचार से मोक्षमार्ग या संवर-निर्जरा तत्त्व कहलाती है। 3. यह अंतरंग परिणति होने से इसकी | यह बाह्यवृत्ति होने से इसका अनुकरण नकल संभव नहीं है। भी किया जा सकता है। 4. यह मनुष्य-तिर्यंचरूप सभी व्रती | शारीरिक संरचना तथा संयोगों की श्रावकों के लगभग एक समान विविधता के कारण मनुष्य-तिर्यंच की होती है। अपेक्षा इसमें अंतर पड़ता है। 5. यह स्वयं निराकुलतामय तथा पूर्ण | यह आंशिक आकुलतामय या वेदन से निराकुलता का कारण है। रहित पूर्णतया जड़ का परिणमन है। 6. इसकी पहिचान बाह्य प्रवृत्तिओं से | इसकी पहिचान बाह्य प्रवृत्तिओं से हो नहीं की जा सकती है। जाती है। 7. यह पंचमगुणस्थान में ही होती है। यह कभी-कभी प्रथम आदि गुणस्थानों में भी देखी जाती है। तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /77
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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