SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सहचारी और निमित्त होने से व्यवहार प्रतिमा कहलाती हैं। प्रश्न 17: उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तरः दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि विकारी भावों के अभाव पूर्वक प्रगट हुए सम्यक् रत्नत्रयसम्पन्न देशसंयमी जीव के दशमी प्रतिमावाले की अपेक्षा प्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं के और भी अधिक मन्द हो जाने से परिवार, कुटुम्ब आदि के मध्य में रहने का भाव तथा अपने लिए बनाए गए भोजन, आवास आदि को ग्रहण करने का भी भाव समाप्त हो जाता है, यह उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है। कविवर पं. बनारसीदास जी वहीं, छंद 71 द्वारा इसे इसप्रकार से स्पष्ट करते हैं - "जो सुछंद वरते तज डेरा, मठ मंडप में करे बसेरा। उचित आहार उदंड विहारी, सो एकादश प्रतिमाधारी।। जो अपने घर से स्वतंत्र हो/ घर को छोड़कर मठ, मंडप आदि में निवास करता है; अनुद्दिष्ट, पूर्ण शुद्ध, यथा-लब्ध आहार-विहार आदि करता है, वह ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक है।” आचार्य समन्तभद्रस्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के 147वें श्लोक द्वारा इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “गृहतो मुनिवनमित्वा, गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यनुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ।। __ जो घर को छोड़कर, मुनिराज के समीप जाकर, गुरुओं के सान्निध्य में व्रतों को ग्रहण कर, भिक्षावृत्ति से भोजन करता हुआ, तपश्चरण करता है, वह चेल खण्डधारी उत्कृष्ट श्रावक है।" इस प्रतिमा में प्रत्याख्यानावरण का अत्यल्प अत्यन्त मंद उदय होने से, पंचमगुणस्थानवर्ती वीतरागता सर्वाधिक बढ़ गई है। निर्विकल्प दशा भी शीघ्र-शीघ्र होने लगी है तथा कुछ अधिक काल पर्यन्त टिकने लगी है। संसार, शरीर, भोगों के प्रति उदासीनता भी बहुत अधिक बढ़ गई है; अतः अब यह श्रावक घर में नहीं रहता है। यद्यपि यह पूर्णतया नग्न दिगम्बर दशा का ही इच्छुक है; तथापि अभी पुरुषार्थ की कुछ कमजोरी होने से, प्रत्याख्यानावरण का कुछ अंश विद्यमान होने से, अपनी असमर्थता समझता हुआ खंड वस्त्र धारण करता है। जिसे ओढ़ने से पैर ढकने पर शिर नहीं ढक सके तथा शिर ढकने पर पैर नहीं ढक सके - ऐसे अपने तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /75
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy