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यह अनुमति त्याग प्रतिमाधारी श्रावक है। कविवर पं. बनारसीदासजी वहीं, छंद 70 द्वारा इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“पर कौं पापारम्भ को, जो न देइ उपदेश।
सो दशमी प्रतिमा सहित, श्रावक विगत क्लेश ।। जो अन्य को पाप संबंधी आरम्भ का उपदेश नहीं देता है, वह क्लेश/खेद/ दुःख रहित दशमी प्रतिमाधारी श्रावक है।"
आचार्य समन्तभद्रस्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के 146 वें श्लोक द्वारा इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“अनुमतिरारम्भे वा, परिग्रहे ऐहिकेषु कर्मसु वा।
नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः सः मन्तव्यः।। जो आरम्भ में, परिग्रह में; विवाह करना, घर बनाना, व्यापार-नौकरी करना इत्यादि इस लोक संबंधी कार्य में अनुमति नहीं देता है, वह सम बुद्धिवाला अनुमति विरत जानना चाहिए।" . वास्तव में प्रत्येक संसारी प्राणी अपने द्वारा किए गए शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है। कोई अन्य उसके कर्मों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता है। उस जीव को अपनी भवितव्यता के अनुसार ही शुभ-अशुभ करने के भाव उत्पन्न होते हैं। उनमें किसी की भी सलाह, सुझाव, आज्ञा, उपदेश, समझ, अनुभव, इच्छा आदि किंचित् भी कार्यकारी नहीं है - यह तथ्य चारित्र के स्तर पर भी जीवन में समा जाने के कारण इस व्रती श्रावक को अन्य के पापारम्भ सम्पन्न कार्यों में सलाह, सुझाव, मार्गदर्शन, अनुमति आदि देने रूप अशुभभाव उत्पन्न नहीं होता है।
वास्तव में अन्य को सलाह आदि देने से उसमें कुछ परिवर्तन तो होता नहीं है; पाप की अनुमोदना आदि से व्यर्थ ही पापबंध हो जाता है - इस तथ्य के बल पर यह श्रावक व्यापार, विवाह, घर, वस्त्र, भोजन आदि किन्हीं भी कार्यों में, किन्हीं भी व्यक्तिओं को मार्गदर्शन आदि नहीं देता है। अपनी-अपनी करनी का फल प्रत्येक को भोगना पड़ता है, इनके कार्यों में उलझकर मैं अपना उपयोग व्यर्थ क्यों करूँ? इस चिंतन के वल पर प्रत्येक परिस्थिति में समताभाव धारण करता हुआ, सतत अकर्तृत्व भाव की भावना को पुष्ट करता रहता है । यह दशमी अनुमति त्याग प्रतिमा है।
इसमें प्रगट हुई वीतरागता तो वास्तविक धर्म होने से निश्चय प्रतिमा है तथा अनुमति आदि नहीं देने रूप शुभभाव और शुभ प्रवृत्तिआँ निश्चय प्रतिमा की
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /74