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जो दश प्रकार के परिग्रह का त्यागकर, सुख-सन्तोष पूर्वक वैरागी होकर, समताभाव से अत्यंत आवश्यक आवश्यकताओं की सामान्य पूर्ति के लिए संचित परिग्रह में से अत्यल्प परिग्रह ग्रहणकर शेष सभी का त्याग कर देता है, वह परिग्रह त्यागी श्रावक है ।
क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बर्तन अथवा क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, दास-दासी आदि मनुष्य, गाय-भैंस आदि पशु, शैया - आसन आदि सोने-बैठने के साधन, यान - वाहन आदि गमनागमन के साधन, वस्त्र और बर्तन – ये दश प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं । इनका होना, नहीं होना सुख-दुःख का
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कारण नहीं है। अपने से पूर्णतया भिन्न पर पदार्थ होने से ये अपने अधीन नहीं हैं । . ये अपनी-अपनी योग्यतानुसार और निमित्तरूप से पूर्वबद्ध कर्मों के उदयानुसार अपने सानिध्य में रहते हैं, जीव की इच्छानुसार नहीं । इनके प्रति मेरा ममत्व ही दुःखमय तथा दुःख का कारण है और निर्ममता ही सुखमय तथा सुख का कारण है इत्यादि भावनाओं के बल पर यह साधक जीव अपने लिए उपयोगी अति आवश्यक, अत्यल्प पदार्थों को अपने पास रखकर शेष सभी परिग्रह का पूर्णतया त्याग कर देता है । अत्यल्प रखे हुए परिग्रह को उपयोग में लेने के भाव को, अपनी अनधिकृत चेष्टा समझनेवाला, समस्त इच्छाओं तथा दीनता - हीनता से रहित, कर्मोदयानुसार यथा-लब्ध आहार, स्थान, वस्त्र आदि में संतुष्ट रहनेवाला यह साधक प्राप्त परिग्रह के प्रति अनासक्त भाव रखता हुआ, पूर्ण अपरिग्रही होने की सतत भावना भाता हुआ, स्वरूप - स्थिर रहने का प्रयास करता हुआ, सतत समरसी भाव में निमग्न रहता है। यह परिग्रह त्याग नामक नवमीं प्रतिमाधारी श्रावक है।.
इसमें व्यक्त वीतरागता वास्तविक धर्म होने से निश्चय प्रतिमा है तथा समस्त परिग्रह के त्याग रूप शुभभाव और तदनुकूल शुभ प्रवृत्तिऔँ उस वीतरागता की निमित्त या सहचारी होने के कारण उपचार से व्यवहार प्रतिमा कहलाती हैं।
प्रश्न 16ः अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट कीजिए ।
उत्तरः दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि विकृतिओं के अभाव पूर्वक प्रगट हुए सम्यक् रत्नत्रयसम्पन्न देशसंयमी जीव के नवमीं प्रतिमावाले की अपेक्षा प्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं के और भी अधिक मन्द हो जाने से आरम्भ - परिग्रह संबंधी कार्यों में अनुमति देने का भी भाव नहीं आता है, तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 73