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पूजन के प्रत्येक छंद का अर्थ क्रमशः इसप्रकार है - स्थापना - भव-समुद्र सीमित कियो, सीमंधर भगवान।
कर सीमित निजज्ञान को, प्रगट्यो पूरण ज्ञान।। प्रगट्यो पूरण ज्ञान-वीर्य-दर्शन-सुखधारी, समयसार अविकार विमल चैतन्य विहारी। अंतर्बल से किया प्रबल रिपु-मोह पराभव,
अरे भवान्तक ! करो अभय हर लो मेरा भव ।। हे सीमंधर भगवान ! आपने अपने सार्थक नाम के अनुसार इस संसार-समुद्र को सीमित कर दिया है अर्थात् आपका यह अंतिम भव है; इस भव की समाप्ति पर आप सदा-सदा के लिए संसार से छूटकर मोक्षपद प्राप्त कर लेंगे। आपने अपने ज्ञान को सीमित कर/संपूर्ण परपदार्थों से हटाकर अपने ज्ञानानंद स्वभावी भगवान आत्मा में लगाकर परिपूर्ण ज्ञान/क्षायिक ज्ञान/केवलज्ञान प्रगट किया है। इस परिपूर्ण अनंतज्ञान के साथ ही आपमें अनंतदर्शन, अनंतवीर्य और अनंतसुख भी प्रगट हो गए हैं – इसप्रकार आप अनंत चतुष्टय सम्पन्न हैं। आपने अंतर्बल से/आत्मस्वरूप में परिपूर्ण लीनतामय अन्तरोन्मुखीं अनंत पुरुषार्थ से समस्त जगत के महाबलशाली मोहरूपी शत्रु को जीतकर निर्विकार, निर्मल समयसार स्वरूप शुद्ध दशा प्रगट कर ली है। आप अपने चैतन्य स्वभाव में निरंतर विहार कर रहे हैं। इसप्रकार आपने अपने संसार को पूर्णतया नष्ट कर दिया है। हे संसार को नष्ट करनेवाले या संसार को नष्ट करने के लिए अंतक/यमराज के समान सीमंधर स्वामी ! मुझे भी इस संसार के भय से निर्भय कर दो, मेरा संसार भी हर लो/ नष्ट कर दो।
तात्पर्य यह है कि आपके द्वारा बताए गए मार्ग को जानकर, पहिचानकर, मैं भी आपके समान अपने शुद्धात्मा में सतत लीन रहूँ; जिससे मेरा भी संसार नष्ट होकर मैं भी आपके समान वीतरागी-सर्वज्ञ हो जाऊँ - इस रूप में भक्त अपने मन-मंदिर में सीमंधर भगवान की स्थापना कर रहा है। जल - प्रभुवर तुम जल से शीतल हो, जल से निर्मल अविकारी हो ।
मिथ्यामल धोने को जिनवर, तुम ही तो मल परिहारी हो ।। तुम सम्यग्ज्ञान जलोदधि हो, जलधर अमृत बरसाते हो। भविजन मन मीन प्राणदायक, भविजन मन-जलज खिलते हो।।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /3