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________________ सूखी, पकी, तपायी गई, खटाई या नमक आदि से मिश्रित तथा किसी यंत्र/चाकू आदि से छिन्न-भिन्न की गईं सभी वस्तुएं प्रासुकं कहलाती हैं।" इस प्रतिमाधारी श्रावक के विद्यमान वीतरागता वास्तविक धर्म होने से निश्चय प्रतिमा कहलाती है तथा उसके साथ रहनेवाले सचित्त पदार्थ का उपयोग नहीं करनेरूप दयामय शुभभाव और तदनुकूल शुभ प्रवृत्तिआँ उसकी सहचारी और निमित्त होने के कारण उपचार से व्यवहार प्रतिमा कहलाती हैं। . प्रश्न 12: दिवा मैथुन त्याग प्रतिमा या रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। ____उत्तर : दर्शनमोहनीय, अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं के अभावपूर्वक प्रगट हुए सम्यक् रत्नत्रयसम्पन्न देशसंयमी जीव के प्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं की विशिष्ट मंदता हो जाने से संसार, शरीर और भोगों संबंधी विशिष्ट अनासक्तिभाव व्यक्त हो जाने के कारण वह दिन में स्वस्त्री के साथ भी मैथुन का त्यागी हो जाता है तथा नव-नव कोटी से रात्रि भोजन का त्यागी हो जाता है। यह दिवामैथुन या रात्रि-भुक्ति त्याग नामक छठवीं प्रतिमा है। कविवर पं. बनारसीदासजी वहीं, छंद 65 द्वारा इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___“जो दिन ब्रम्हचर्य व्रत पालै, तिथि आये निशि दिवस संभाले। ____ गहि नव बाड़ करै व्रत रक्षा, सो षट् प्रतिमा श्रावक अख्या।। जो दिन में ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करता है, पर्व तिथिओं में दिन-रात दोनों समय ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करता है, नव बाड़ पूर्वक इस व्रत की रक्षा करता है, वह छठवीं प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है।" इसप्रकार कविवर पं. बनारसीदासजी छठवीं प्रतिमा को दिवा मैथुन त्याग के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस साधक जीव के दूसरी प्रतिमा में ब्रम्हचर्य अणुव्रत रूप स्वदार सन्तोषव्रत निरतिचार हो जाने के कारण परस्त्री संबंधी विकृतभाव आदि का तो पहले ही पूर्णतया अभाव हो गया था। तत्पश्चात् स्वरूप-स्थिरता में विशेष वृद्धि होते जाने से अब स्वस्त्री के प्रति भी कुछ अनासक्ति का परिणाम जागृत हो गया है; अतः अब दिन में पूर्ण ब्रम्हचर्य से रहता है। पर्व तिथिओं में तो विशिष्ट आत्मसाधना के लिए दिन-रात दोनों में ही नवबाड़ पूर्वक ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करता है; तथापि पूर्ण अनासक्ति भाव नहीं होने से अभी पूर्ण ब्रम्हचर्य का पालन नहीं कर पा रहा है। __ पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /68
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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