SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न 11ः सचित्त त्याग प्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तरः सचित्त शब्द स और चित्त- इन दो शब्दों से मिलकर बना है । स=सहित, चित्त=जीव; अर्थात् जीव सहित पदार्थ सचित्त कहलाते हैं । ऐसे पदार्थों का त्याग सचित्त त्याग है। दर्शनमोहनीय, अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं के अभाव पूर्वक प्रगट पूर्वोक्त चार प्रतिमामय सम्यक् रत्नत्रय सम्पन्न देशसंयमी के प्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं की और अधिक मंदता हो जाने से बढ़ी हुई वीतरागता के बल पर सचित्त पदार्थों के उपयोग का भाव समाप्त हो जाना सचित्त त्याग नामक पाँचवीं प्रतिमा है । कविवर पं. बनारसीदासजी वहीं, छंद 64 द्वारा इसका स्वरूप इसप्रकार लिखते हैं " जो सचित्त भोजन तजै, पीवै प्रासुक नीर । सो सचित्तत्यागी पुरुष, पंच प्रतिज्ञागीर ।। जो सचित्त भोजन का त्यागी है, प्रासुक जल पान करता है / उपयोग में लेता है, वह पाँचवीं प्रतिमा का पालन करने में तत्पर सचित्तत्यागी पुरुष / जीव है । " आचार्य समंतभद्रस्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के 141 वें श्लोक द्वारा इसका स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "मूलफलशाकशाखाकरीरकंदप्रसूनचीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः । । जो दयामूर्ति मूल, फल, शाक, शाखा / डाली, करीर / कोंपल, कंद, फूल, बीज आदि का कच्चा / बिना प्रासुक किए भक्षण नहीं करता है, वह सचित्तत्यागी है । " अपने समान अन्य जीवों को माननेवाला यह संवेदनशील देशसंयमी साधारण और सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति का तो पहले से ही त्यागी था । अब वीतरागता विशेष बढ़ जाने के कारण संसार, शरीर, भोगों के प्रति विशेष उदासीनता व्यक्त प्रासु किए बिना अप्रतिष्ठित वनस्पति का भी भक्षण नहीं करता है । यद्यपि अप्रतिष्ठित सचित्त को अचित्त बनाने में भी प्राणघात तो होता है; तथापि प्राणघात 'का अभिप्राय नहीं होने से तथा प्राणी संयम की अपेक्षा इन्द्रिय संयम में विशेषता होने से वह उन्हें अचित्त / प्रासुक करके ही ग्रहण करता है। सचित्त पदार्थ को अचित्त / प्रासुक करने की पद्धति बताते हुए मूलाचार में लिखा है - " सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिल लवणेण मिस्सयं दव्वं । जं जंतेण य छिन्नं तं सव्वं पासुगं भणियं । । तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 67
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy