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________________ हा कोई भी ज्ञानी व्रती श्रावक रात्रि में तो आरम्भ-परिग्रह का पूर्णतया त्यागी होता ही है; अतः कविवर पं. बनारसीदासजी ने उसे न गिनकर मात्र दिन के समय की अपेक्षा ही 8 प्रहर, 6 प्रहर और 4 प्रहर की गणना की है। इसप्रकार मुनि दशा प्रगट करने में असमर्थ श्रावक मुनिमार्ग को ही श्रेयस्कर मानता हुआ संसार, शरीर और भोगों से विरक्त रह पर्व दिनों में मुनिवत जीवन जीता है। यह उसका प्रोषधोपवास व्रत है। इसमें जो वीतरागतारूप वास्तविक धर्म है, वह निश्चय प्रतिमा है तथा उपवास आदि करने रूप शुभ भाव और तदनुकूल क्रियाएं उसकी निमित्त और सहचारी होने से व्यवहार प्रतिमा हैं। प्रश्न 10: प्रोषधोपवास प्रतिमा और प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत में क्या अंतर है ? उत्तरः वैसे तो ये दोनों ही एक पंचम गुणस्थानवर्ती दशाएं हैं; तथापि इनमें कुछ अन्तर है; वह इसप्रकार - प्रोषधोपवास प्रतिमा प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत 1. यह एक स्वतंत्र मूल व्रत है। यह व्रत प्रतिमा का एक अंश रूप शीलव्रत है। 2. यह चौथी प्रतिमा होने से इसमें | इसमें चौथी प्रतिमावाले की अपेक्षा कषाय दूसरी प्रतिमावाले की अपेक्षा कषाय | की अधिकता और अतीन्द्रिय आनन्द की विशेष हीनता और अतीन्द्रिय | की हीनता होती है। आनन्द की विशेष अधिकता है। 3. इस प्रतिमा में प्रोषधोपवास नियम से | यह शील/अभ्यासरूप होने के कारण होने-योग्य कार्य है। इसका नियम नहीं है। 4. इसमें समग्र विधिपूर्वक प्रोषधोपवास | इसमें कदाचित् अपवाद की स्थिति भी ___ होता है। बन सकती है। 5. इसमें प्रोषधोपवास निरतिचार है। | इसमें यह सातिचार है। . 6. विधिवत प्रोषधोपवास नहीं करने | इसमें यह कदाचित् नहीं कर पाने पर पर शुद्धि नष्ट हो जाने से यह | भी व्रत प्रतिमा खण्डित नहीं होती है । प्रतिमा ही नष्ट हो जाती है। । इत्यादि प्रकार से इन दोनों में अन्तर है। पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /66 चाय काय ह।
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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