________________
चारित्रसार ग्रंथ में इसे इसप्रकार स्पष्ट किया गया है – “सम्यगेकत्वेनायनं गमनं समयः, स्वविषयेभ्यो विनिवृत्त्य कायवाङ्मनःकर्मणामात्मना सह वर्तना द्रव्यार्थेनात्मनः एकत्वगमनमित्यर्थः । समय एव सामायिक, समयःप्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् – अच्छी तरह से प्राप्त होना, एकत्वरूप से आत्मा में लीन होना समय है; अपने-अपने विषयों से हटकर काय, वचन और मन की प्रवृत्ति का आत्मा के साथ वर्तना; द्रव्य और अर्थ द्वारा आत्मा के साथ एकत्व गमन है - यह इसका अर्थ है। ऐसा समय ही सामायिक है अथवा समय ही जिसका प्रयोजन है, वह सामायिक है।" ।
सामायिक का अस्ति-नास्ति परक अर्थ स्पष्ट करते हुए गोम्मटसार जीवकाण्ड की जीव-तत्त्व-प्रबोधिनी टीका में आचार्य अभयचंद्र सूरी लिखते हैं – “समं एकत्वेन आत्मनि आयः आगमनं परद्रव्येभ्यो निर्वृत्त्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्तिः समायः; अयमहं ज्ञाता दृष्टा चेति आत्मविषयोपयोग इत्यर्थः, आत्मनः एकस्यैव ज्ञेयज्ञायकत्वसंभवात् । अथवा सं समे रागद्वेषाभ्यामनुपहते मध्यस्थे आत्मनि आयः उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः स प्रयोजनमस्येति सामायिकम् – सम् अर्थात् एकत्वरूप से, आय अर्थात् आगमन; अर्थात् परद्रव्यों से निवृत्त होकर उपयोग की आत्मा में प्रवृत्ति समाय है। एक ही आत्मा के ज्ञेय-ज्ञायकपना सम्भव होने से यह मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ - इसप्रकार से आत्मा में उपयोग रहना इसका अर्थ है। अथवा सम् अर्थात् सम में/राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ आत्मा में, आय अर्थात् उपयोग की प्रवृत्ति समाय है; वह समाय जिसका प्रयोजन है, वह सामायिक है।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी इसे सर्वत्र सामयिक नाम देते हैं।
निष्कर्ष यह है कि समस्त सावद्य योगों, पर पदार्थों से हटकर अपने उपयोग को आत्मस्वरूप में लगाना/स्थिर करना सामायिक है। इसमें व्यक्त वीतरागता वास्तविक निश्चय सामायिक प्रतिमा है तथा सामायिक करने के शुभभाव और तदनुकूल शुभ क्रियाएं व्यवहार सामायिक प्रतिमा है।
प्रश्न 8: सामायिक प्रतिमा और सामायिक शिक्षाव्रत में क्या अन्तर है ?
उत्तरः वैसे तो ये दोनों ही एक पंचमगुणस्थानवर्ती दशाएं हैं; तथापि इनमें कुछ अन्तर है। वह इसप्रकार है -
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /63