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फल का विचार करे । वस्तु के सहज, सुनिश्चित, सुव्यवस्थित परिणमन क्रम को हृदयंगम कर सहज अकर्ता/ज्ञाता-दृष्टामय रहते हुए आत्मस्थ रहे; उपयोग को यहाँवहाँ भटकाने का प्रयास नहीं करे। प्रत्येक परिस्थिति/ज्ञेय को समताभाव पूर्वक सहज स्वीकारकर आत्मस्थ रहे।
द्रव्य-भाव विधिपूर्वक की गई सामायिक से लाभ - सामायिक के समय की गई द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सीमा के बाहर यह जीव महाव्रतिओं के समान समस्त आरम्भ-परिग्रह के त्याग से पाँचों पापों का पूर्णतया त्यागी कहा गया है तथा अपने मर्यादित स्थान पर भी सावध योग का त्यागी तथा समता का अभ्यासी होने से वस्त्र से आच्छादित मुनिराज के समान माना गया है; इससे ही मुनिपद की शिक्षा का अभ्यास होता है; अतः प्रतिदिन आलस्य रहित हो, एकाग्रचित्त से सामायिक का अभ्यास करना चाहिए।
विभिन्न आचार्यों की अपेक्षा सामायिक शब्द का व्युत्यत्तिपरक अर्थ - आचार्य पूज्यपाद स्वामी तत्त्वार्थसूत्र सातवें अध्याय के 21वें सूत्र की टीका लिखते हुए सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में लिखते हैं – “ समेकीभावे वर्तते।......एकत्वेन अयनं गमनं समयः, समयः एव सामायिकम् । समयः प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम् – 'सम्' उपसर्ग का प्रयोग एकीभाव अर्थ में किया जाता है।......(सामायिक में मूल शब्द समय है) जानना और गमन करना/परिणमित होना – ये दोनों कार्य जो एक साथ करता है, वह समय अर्थात् आत्मा है; समय ही सामायिक है। अथवा समय अर्थात् एकरूप हो जाना ही जिसका प्रयोजन है, वह सामायिक है।"
तत्त्वार्थसूत्र नवमें अध्याय की टीका लिखते हुए आचार्य अकलंकदेव अपने तत्त्वार्थवार्तिक (राजवार्तिक) ग्रंथ में सामायिक शब्द का इसप्रकार विश्लेषण करते हैं – “आयन्तीत्यायाः अनर्थाः सत्त्वव्यपरोपणहेतवः, संगताः आयाः समायाः, सम्यग्वा आयाः समायास्तेषु ते वा प्रयोजनमस्येति सामायिकमवस्थानम् – आय-अनर्थ अर्थात् प्राणिओं की हिंसा के हेतुभूत परिणाम; उस आय/अनर्थ का सम्यक् प्रकार से नष्ट हो जाना समाय है; अथवा सम्यक् आय अर्थात् आत्मा के साथ एकीभूत होना समाय है। उस समाय में होनेवाला अथवा वह समाय ही है प्रयोजन जिसका, वह सामायिक है।"
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /62