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सामायिक प्रतिमा
सामायिक शिक्षाव्रत 1. यह एक स्वतंत्र मूलव्रत है। यह व्रत प्रतिमा का एक अंश रूप
शीलव्रत है। 2. यह तीसरी प्रतिमा होने से इसमें | इसमें तीसरी प्रतिमावाले की अपेक्षा कषाय
दूसरी प्रतिमावाले की अपेक्षा कषाय | की अधिकता और अतीन्द्रिय आनन्द की हीनता और अतीन्द्रिय आनन्द | की हीनता होती है।
की अधिकता है। 3. यह तीसरी प्रतिमा का मूलव्रत | यह शील/अभ्यासरूप होने के कारण होने के कारण इस प्रतिमा सम्पन्न | इसमें तीन बार का नियम नहीं है। जीव तीन बार नियम से सामायिक 'करता है। 4. इसमें द्रव्य-भावमय विधिपूर्वक | इसमें कदाचित् अपवाद की स्थिति भी सामायिक होती है।
बन सकती है। 5. इसमें सामायिक व्रत निरतिचार है। | इसमें यह अतिचार सहित है। 6. तीन बार सामायिक नहीं करने पर | इसमें यह सातिचार होने के कारण
शुद्धि नष्ट हो जाने से यह प्रतिमा ही | कदाचित् नहीं कर पाने पर भी व्रत नष्ट हो जाती है।
प्रतिमा खण्डित नहीं होती है। इत्यादि प्रकार से इन दोनों में अन्तर है। प्रश्न 9: प्रोषधोपवास प्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं के अभाव पूर्वक प्रगट हुए पूर्वोक्त तीन प्रतिमामय सम्यक् रत्नत्रय सम्पन्न यह देशसंयमी प्रत्याख्यानावरण आदि विकृतिओं की विद्यमानता के कारण सम्पूर्ण आरम्भ-परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं कर पाता है; तथापि प्रत्याख्यानावरण की मंदता होने से यह पर्व तिथिओं में उनका पूर्णतया त्यागकर अपना पूरा समय धार्मिक क्रियाओं में ही व्यतीत करता है; यही प्रोषधोपवास प्रतिमा है। कविवर पं. बनारसीदासजी नाटक समयसार के चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद 63 में इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /64