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कम छह महिने) हो सकता है। 6. इसमें अष्ट मूलगुणं आदि का निरतिचार पालन नहीं है ।
7. यह जघन्य अन्तरात्मा है ।
8. इसमें मात्र दर्शनमोहनीय और अनंतानुबंधी का अनुदय आदि होता
11. यह मनुष्य-तिर्यंच भव की गर्भावस्था में भी रह सकता है। चारों गतिओं की निर्वृत्त्यपर्याप्तक दशा में भी रह सकता है।
है।
9. इसमें 41 कर्म प्रकृतिओं की बंधव्युच्छित्ति होती है।
इसमें 51 कर्मप्रकृतिओं की बंधव्युच्छित्ति होती है ।
10. यह परम्परा अपेक्षा से सादि अनन्त यह सदैव सादि-सांत ही होती है।
है ।
12. किसी भी आयु का बन्ध हो जाने पर भी यह- आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा हो सकता है।
15 दिन) होता है। इसमें उनका निरतिचार पालन है ।
यह मध्यम अंतरात्मा की कोटी में गिनी जाती है ।
इसमें इनके साथ ही अप्रत्याख्यानावरण का भी अनुदय होता है।
14. इसमें प्रतिज्ञापूर्वक त्यागभाव नहीं है । 15. यह विग्रहगति में भी रह सकता है । 16. त्रेषठ शलाकापुरुष इससे सहित ही होते हैं । 17. यह औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक – तीनों भाव रूप होता है ।
यह अपर्याप्तक तथा गर्भावस्था में कभी भी नहीं रहती है । कर्मभूमिज़ मनुष्य को गर्भकाल के आठ वर्ष बाद तथा तिर्यंच को भी जन्म के बाद योग्यतानुसार व्यक्त होती है ।
यह देवायु को छोड़कर अन्य तीन आयु में से किसी भी आयु का बंध हो जाने पर नहीं होती है ।
13. इसके बिना मोक्ष कभी भी नहीं इसके बिना भी मोक्ष हो जाता है ।
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होगा ।
इसमें प्रतिज्ञापूर्वक त्यागभाव है । यह विग्रहगति में नहीं रहती है। वे तीव्र पुरुषार्थी होने के कारण यह उनके जीवन में नहीं आती है । यह मात्र सापेक्ष क्षायोपशमिक भावरूप ही होती है।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 57