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इत्यादि प्रकार से दोनों में अंतर है ।
प्रश्न 6ः व्रत प्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट कीजिए ।
उत्तरः दर्शनमोह, अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि विकारों के उदय के अभावपूर्वक प्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि विकारों के कुछ मंद उदय से व्यक्त हुई वृद्धिंगत वीतरागता तथा शेष रहे क्रोधादि विकारों के सद्भाव में व्यक्त हुए बारह व्रतादि रूप शुभभाव और तदनुकूल प्रवृत्तिओं की समग्रता व्रत प्रतिमा है। पहली दर्शन प्रतिमाधारी की अपेक्षा इसके वीतरागता कुछ अधिक हो जाने से स्वरूप-स्थिरता कुछ अधिक हो गई है। तदनुरूप पर पदार्थों के प्रति विशेष उपेक्षा भाव व्यक्त हो गया है । जिससे भूमिकानुसार अशुभ में कमी और शुभ में वृद्धि भी हो गई है । इसप्रकार विशिष्ट शुद्ध - अशुद्ध रूप परिणामों का मिश्रण व्रत प्रतिमा है।
कविवर पं. बनारसीदास जी वहीं, छंद 60 द्वारा इसे इसप्रकार व्यक्त करते
हैं -
“पाँच अणुव्रत आदरै, तीन गुणव्रत पाल ।
शिक्षाव्रत चारों धरै, यह व्रत प्रतिमा चाल । ।
पाँच अणुव्रतों का आदर करनेवाला, तीन गुणव्रतों का पालन करनेवाला और चार शिक्षाव्रतों को धारण करनेवाला व्रत प्रतिमाधारी श्रावक है । "
अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रम्हचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणव्रत - ये पाँच अणुव्रत हैं । दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डविरतिव्रत अथवा दिव्रत, अनर्थदण्डविरतिव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत- ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण, अतिथिसंविभाग अथवा देशव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्त्य - ये चार शिक्षाव्रत हैं। अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत मूलव्रत कहलाते हैं तथा तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - ये सात शीलव्रत कहलाते हैं। (इन सभी का विस्तृत वर्णन 'वीतराग विज्ञान विवेचिका' में पृष्ठ 204 से 255 पर्यंत किया गया है । व्रत प्रतिमा का स्वरूप समझने के लिए पुनः उसका अध्ययन करना आवश्यक है । ) मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण के अभावरूप वीतरागता से सहित इन बारह व्रतों का पालन व्रत प्रतिमा है । पहली प्रतिमा में पाँच अणुव्रतों का निरतिचार पालन नहीं था इसमें उनका निरतिचार पालन होता है ।
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /58