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का भी पूर्णतया त्याग कर देता है । इसकी मन, वचन, काय संबंधी समस्त प्रवृत्तिआँ व्यक्त हुई वीतरागता और शुभभाव के अनुकूल ही होती हैं। ___आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार के श्लोक 137वें द्वारा दर्शनप्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट किया है, जिसका भाव इसप्रकार है - ___ “पच्चीस दोषों से रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन सम्पन्न, संसार-शरीर-भोगों से विरक्त, पंच परमेष्ठी की चरण-शरण में रहनेवाला, सर्वज्ञ कथित तत्त्व-पथ को ग्रहण करनेवाला जीव दार्शनिक प्रतिमाधारी कहलाता है।"
- इस प्रतिमा का पूरा नाम दार्शनिक (दर्शन संबंधी) प्रतिमा है; बोलचाल में दर्शनप्रतिमा कहने लगे हैं । यह प्रतिमा जिनेन्द्र भगवान के दर्शनमात्र से संबंधित न होकर, आत्मदर्शन पूर्वक प्रगट हुई विशिष्ट आत्म-स्थिरतामय वीतरागता से संबंधित है। इसमें व्यक्त वीतरागता वास्तविक/निश्चय दर्शनप्रतिमा है तथा निरतिचार पूर्वक आठ मूलगुणों के पालन और सात व्यसनों के त्यागमय शुभभाव एवं तदनुकूल प्रवृत्तिआँ औपचारिक/व्यवहार दर्शनप्रतिमा है।
प्रश्न 5: सम्यग्दर्शन और दर्शन प्रतिमा में क्या अन्तर है ?
उत्तरः वैसे तो.ये दोनों सम्यक् रत्नत्रय के अंश होने से एक मोक्षमार्ग रूप ही हैं; तथापि इन दोनों में स्वरूपगत कुछ अंतर भी है। जो इसप्रकार है - सम्यग्दर्शन -
दर्शन प्रतिमा 1. सम्यग्दर्शन श्रद्धागुण का सम्यक् | दर्शनप्रतिमा चारित्र गुण का शुद्धाशुद्ध परिणमन है।
रूप मिश्र परिणमन है। 2. यह चतुर्थगुणस्थान में प्रगट हो जाने | यह पंचमगुणस्थान की एक भाग होने
के कारण दर्शनप्रतिमा के बिना भी | से सम्यग्दर्शन के बिना कभी भी नहीं रहता है।
होती है। 3. यह चारों गतिओं में होता है। | यह मात्र कर्मभूमिज मनुष्य-तिर्यंच में ही
होती है। 4. यह असंयम दशा में भी होता है। | यह देशसंयम दशा में ही होती है। 5. इसमें विशेष स्वरूप-स्थिरता नहीं है | इसमें स्वरूप-स्थिरता कुछ विशेष/अधिक तथा दो स्वरूप-स्थिर दशाओं के | है तथा दो स्वरूप-स्थिर दशाओं के बीच बीच अंतराल अधिक (कुछ समय | अंतराल कुछ कम (अधिक से अधिक
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /56 .