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साधकदशा संबंधी वास्तविक मोक्षमार्ग है। शेष प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन आदि के उदय में विद्यमान बारह व्रत आदि के परिणाम, भूमिकानुसार प्रतिमा पालन के भाव यद्यपि विकाररूप होने से धर्म नहीं हैं और तदनुकूल शरीर आदि बाह्य संयोगों की परिणति पूर्णतया जड़मय होने से धर्म नहीं है; तथापि व्यक्त वीतरागता के सहचारी और निमित्त होने से कदाचित् निमित्त-नैमित्तिक संबंध की मुख्यता से, व्यवहार नय की अपेक्षा इन्हें भी उपचार से धर्म कह देते हैं। यह क्रमशः साधकदशा संबंधी बंधमार्ग तथा बंध-मोक्ष से निरपेक्ष शरीरादि की क्रिया है। इन तीनों का एक नाम देशसंयम है।
इस देशसंयम लब्धि के असंख्यात लोक प्रमाण असंख्य प्रकार के परिणाम होते हैं। जिन्हें संक्षेप में छद्मस्थ के ज्ञानगोचर उत्तरोत्तर वृद्धिंगत वीतरागता की अपेक्षा ग्यारह भागों में वर्गीकृत किया गया है। इन्हें ही ग्यारह प्रतिमाएं कहते हैं। कविवर पं. बनारसीदासजी नाटक समयसार के चतुर्दश गुणस्थानाधिकार में छंद 58 द्वारा प्रतिमा का स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“संयम अंश जग्यौ जहाँ, भोग अरुचि परिणाम।
उदय प्रतिज्ञा को भयो, प्रतिमा ताको नाम ।। . जीव के जिन परिणामों में संयम का अंश जागृत हो गया है; संसार, शरीर
और पंचेन्द्रिय विषय-भोगों के प्रति अरुचि/विरक्ति हो गई है; जिसके कारण अशुभ भावों से बचने के लिए प्रतिज्ञा लेने का भाव व्यक्त हो गया है, उसे प्रतिमा कहते हैं।" ___हिंसा आदि पाँच पापों का तथा पंचेन्द्रिय विषय-भोगों का पूर्णतया त्याग करने में असमर्थ होने पर भी यह जीव उनमें असीम प्रवृत्ति भी नहीं करता है। पहले सम्यग्दर्शन की प्रगटता के साथ ही अन्याय, अनीति, अभक्ष्य-भक्षण, असदाचारमय सात व्यसन आदि संबंधी अति तीव्र कषाय रूप अनर्गल भोग के भाव तो नष्ट हो गए थे; परन्तु अविरत दशा होने से न्याय-नीति सम्पन्न सदाचारमय भोग-भावों में तथा भक्ष्य पदार्थों के सेवन में देश-काल आदि की अपेक्षा मर्यादा/सीमा नहीं थी। अब इसके वीतरागता विशेष बढ़ जाने के कारण न्याय-नीति परक भोग-विलास आदि को भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की अपेक्षा मर्यादित करने का भाव
जागृत हुआ है, इसलिए न्यायोचित विषय-भोगों को भी प्रतिज्ञा पूर्वक छोड़ने की - प्रवृत्ति देखी जाती है। यह भोजन, पान, वस्त्र, बर्तन, धन, धान्य, आसन, वाहन
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /53