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है। परिणति में विशेष वीतरागता प्रगट हो जाती है; जिससे इस साधक जीव के संसार, शरीर और पंचेन्द्रिय विषय-भोगों के प्रति आसक्ति सहज ही हीन हो जाने के कारण, उनके प्रति सहज उदासीनता व्यक्त हो जाती है। अब इसे इस भूमिका के अयोग्य तीव्र विषय-कषायरूप अशुभभाव उत्पन्न नहीं होते हैं तथा नियम-बद्ध होने, प्रतिज्ञा लेने के भाव जागृत हो जाते हैं। उसका बाह्य आचरण भी सहज ही तदनुकूल व्रतादिरूप हो जाता है। इसी अवस्था को पंचम गुणस्थानवर्ती एकदेश संयमी/व्रती श्रावक कहते हैं।
इस जीव के दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि कषायों के उदय का अभाव हो जाने पर भी प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोधादि कषायों का उदय विद्यमान है; जिससे भूमिकानुसार वीतरागता के साथ ही शुभाशुभभाव और तदनुकूल शुभाशुभ क्रियाएं भी होती रहती हैं। इन सभी के असंख्यात लोक प्रमाण भेद होने पर भी संक्षेप में बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में इन्हें विभक्त किया जाता है । उत्तरोत्तर कषायों के अभावानुसार प्रतिमाएं बढ़ती जाती हैं । इस सम्पूर्ण दशा को देशसंयम, देशचारित्र, संयमासंयम, विरताविरत आदि नामों से भी जाना जाता है। इसप्रकार पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की सामान्य दशा शुद्धि और अशुद्धि के, वीतराग और राग के, त्याग और भोग के मिश्रणरूप है।
प्रश्न 3: प्रतिमा का समग्र स्वरूप स्पष्ट करते हुए उसके भेद लिखिए।
उत्तरः सैनी पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, भव्य, कर्मभूमि मनुष्य या तिर्यंच क्षयोपशम,... विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि पूर्वक आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि विकारों के अभावरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप एकदेश वीतरागता प्रगट कर लेता है तथा प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी विकारों से सहित रहता है; इस अविकार और विकाररूप मिश्रदशा को ही पंचमगुणस्थानवर्ती देशसंयम : कहते हैं।
इस मिश्रदशा में से दर्शनमोह, अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण के अनुदय में व्यक्त हुई शुद्ध परिणति/वीतरागता वास्तव में सुखमय तथा सुख की कारण होने से यथार्थ धर्म है, इसे नयों की भाषा में निश्चय धर्म भी कहते हैं । यह
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /52