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आदि जीवनोपयोगी समस्त वस्तुओं संबंधी सीमा सुनिश्चित कर लेता है । भूमिकानुसार उत्तरोत्तर वीतरागता की वृद्धि के साथ ही इन्हें भी उत्तरोत्तर कम करता जाता है ।
वस्तु-स्वरूप का यथार्थ ज्ञाता, आत्मानुभवी होने से यद्यपि यह पूर्ण स्वतन्त्र, पर से निरपेक्ष, समग्र स्वाधीन दशा, सर्व सावद्य योगों से रहित, आरम्भ-परिग्रह विहीन, आत्मलीनतामय शुद्धोपयोगरूप मुनिदशा का ही अभिलाषी है; तथापि अपनी कमजोरी का ज्ञाता होने से उसे पाने का संक्लेशतामय आग्रह भी नहीं रखता है । भूमिकानुसार होनेवाली प्रत्येक परिस्थिति को सहज स्वीकार करता हुआ, भेदविज्ञान के बल से सतत आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ करता रहता है। इसप्रकार यह प्रतिमामय दशा ज्ञानधारा और कर्मधारा की योग्यतानुसार समन्वयात्मक दशा है ।
उत्तरोत्तर वृद्धिंगत वीतरागता की अपेक्षा चरणानुयोग की शैली में इसके ग्यारह भेद किए गए हैं। जो इसप्रकार हैं- 1. दर्शनप्रतिमा, 2. व्रतप्रतिमा, 3. सामायिक प्रतिमा, 4. प्रोषधोपवास प्रतिमा, 5. सचित्तत्यागप्रतिमा, 6. दिवा मैथुन त्याग या रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा, 7. ब्रम्हचर्यप्रतिमा, 8. आरम्भ त्याग प्रतिमा, 9. परिग्रहत्याग प्रतिमा, 10. अनुमतित्याग प्रतिमा और 11. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा । इनमें से क्रमानुसार सभी आगामी प्रतिमाएं पूर्व प्रतिमाओं संबंधी विशुद्धि से सहित होती हैं।
इन प्रतिमाओं को जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन भागों में भी विभक्त किया गया है - पहली से छठवीं प्रतिमा पर्यंत जघन्य, सातवीं से नवमीं प्रतिमा पर्यंत मध्यम तथा दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा को उत्कृष्ट की श्रेणी में रखा गया है । पुनः ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक और ऐलक के रूप में दो भेद कर दशवीं को जघन्य, क्षुल्लक को मध्यम और ऐलक को उत्कृष्ट रूप में भी वर्गीकृत किया है।
ये सभी प्रतिमाधारी श्रावक ही कहलाते हैं, मुनि नहीं। इनके गृहवासी और गृहत्यागी ये दो भेद भी हैं । ग्यारहवीं प्रतिमाधारी तो नियम से गृहत्यागी ही होते हैं; शेष में दोनों भेद सम्भव हैं ।
इसप्रकार उत्तरोत्तर हीन-हीन होते हुए अशुभभाव, बढ़ते हुए शुभभाव और शुद्धभावमय मिश्र परिणति, मिश्र प्रवृत्ति प्रतिमा का समग्र स्वरूप है ।
कभी-कभी कोई मिथ्यादृष्टि जीव शुद्धभावों के बिना ही मात्र कषायों की मंदता के बल पर व्रतादि ग्रहणकर स्वयं को प्रतिमाधारी मान लेते हैं । इससे उन्हें इतना लाभ तो होता है कि वे तीव्र कषाय रूप अशुभ भावमय तीव्र आकुलता से बचे रहते पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं / 54