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________________ साधारण-असाधारण लक्षणों से अपनी पहिचान करना, अतिव्याप्ति लक्षणाभास है। इसके बल पर भेदविज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती है - यह समझ में आ जाने पर, इन सबसे दृष्टि हटाकर जब हम अपने विशेष गुण/चेतना गुण से अपनी पहिचान करते हैं, तो भेदविज्ञान प्रगट हो जाता है। जो आत्मानुभूति और शाश्वत सुख का मूल है। निष्कर्षरूप में यह कहा जा सकता है कि लक्षण और लक्षणाभास को जाने/ पहिचाने बिना लौकिक और लोकोत्तर कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकते हैं। लक्षण से पहिचान कर अपनी वस्तु का निर्णय कीजिए अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं। बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो॥२३॥ सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं। कह सो पोग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ॥२४॥ जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं। तो सक्को वत्तुं जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं ॥२५॥ अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥४९॥ जिसकी मति अज्ञान से मोहित है और जो मोह, राग, द्वेष आदि अनेक भावों से युक्त है ऐसा जीव कहता है कि यह शरीरादिक बद्ध तथा धनधान्यादिक अबद्ध पुद्गलद्रव्य मेरा है। ___आचार्य कहते हैं कि सर्वज्ञ के ज्ञान द्वारा देखा गया जो सदा उपयोगलक्षणवाला जीव है वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो सकता है, जिससे कि तुम कहते हो कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है ? । यदि जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य हो जाय और पुद्गलद्रव्य जीवत्व को प्राप्त करे | तो तुम कह सकते हो कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है (किन्तु ऐसा तो नहीं होता)। | हे भव्य ! तू जीव को रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, अव्यक्त अर्थात् | इन्द्रियगोचर नहीं ऐसा, चेतना जिसका लक्षण है ऐसा, शब्दरहित, किसी चिन्ह से ग्रहण न होनेवाला और जिसका कोई आकार नहीं कहा जाता ऐसा, जान !! ___- समयसार गाथा २३, २४, २५, ४९, तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /47
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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